Book Title: Anusandhan 2004 03 SrNo 27
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ March-2004 हम जानत नीकइ जिस्या तुम्ह आचार" साही सभा सुंणत हई प्रसंसइ वारवार ॥१०१॥ " हम बहुत खुसी हई देखत तुम्ह दीदार सुखिई आए पिंडइ सुखी सहु तुम्ह परिवार ।" तिहां श्रीआचार्य धर्मदेशन दीध भविकजन केरां मनवंछित सहु सिद्ध ॥ १०२॥ अकब्बर आचारिज करइ जे धर्मविचार ते कहुं हुं किणी परिं कइता नावइ पार । कीधी कुंमर निरंद परिं कइ श्रेणिक परि जांणी श्रीहीरजी जेसंगजी कीए विधिना गुणखांणी ॥ १०३ ॥ ढाल ॥ राग सामेरी ॥ मनवंछित काज समारी, हरख्यो हीइ हीरपट्टीधारी । सीख साही पासइं तव मागई, बहु नुबति नींकी बाजइ ॥ १०४॥ उपासरइ श्रीगुरु आवइ, आनंद सहु संघ पावइ । दीजइ हीर- चीर पट्टकूल, गंठोडा तुरी बहुमूल ॥ १०५ ॥ रूपानाणइ दुर्जनसाह, प्रभावना मंडिउ प्रवाह । धन्य दिवस गणुं ते लेखइ, एहवा आणंद जे नित देखइ ॥ १०६॥ दूहा ॥ इइ अवसर वली जे हुउ, ते सुणो चतुर सुजाण । तारातेज तिहां लगइ, जिहां नवि उगइ भाण ॥ १०७॥ माखी त्यजइ जीउ अप्पणो, पणि देवइ परदुख । दुरजन दहई मनि अपणइ देखि पीआरां सुख ॥ १०८ ॥ 43 ढाल ॥ बांभणे जाइ चुगली कीधी, मुंकी मयदा मांहिं दीधी । साही जाकुं बहुत तुम्ह मानो, कीछु उहांकी करणी जाणो ॥ १०९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114