Book Title: Anusandhan 2004 03 SrNo 27
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अनुसंधान-२७ मानत नाही सूरज गंगा, उर, श्रीपरमेश्वर चंगा । नांही दंडवरत की बात, पापी च्युगले घाली घात ॥११०॥
दूहा ॥ दूरजन कर तन वेवहइ, सन्मुख लेत संताप । गरुड बराबरि किउं होवइ, जोरे भलेरा साप ॥१११॥
ढाल ॥ जेसंगजी साहि हजूर, आवइ वली चढतइ नूरि । एक सीह नइ पाषर घाली, किउं डरइ हिरणीकी फाली ॥११२॥ सुभट सुणी रणतूर, किउं झाल्या रहइ तिहां सूर । झूझूइ जिउं सबल झूझार, हुउ तिहां वादविचार ॥११३।।
दूहा ॥ तव गुरु आए साहि पई, जिहां जूडे वादीवृंद । तिहां गुरु गुंजइ सीह जिउं, वादी-गरुड-गोविंद ॥११४।। सूरज हम मानइ सही, निसुंणि अरज वडवीर । उदय होवइ जब सूरकु, तब हम पीवइ नीर ॥११५॥
. ढाल ॥ राति जिमइ भरपूर, तो किसई मान्यो इणइ सूर । । गंगाकुं इयु हम ध्यावइ, मल भस्म न पाउ लगावइ ॥११६॥ जो भगवती कही पोकारइं, तु कइसइ भस्म मल डारइ । भगवंत निरंजन कहीइ, मसकति विण किउं सो लहीइ ॥११७॥ उस पावनकुं इयु कीनो, सही भोग तिजी व्रत लीनो । रमइ रामा रंगि जेह, भगवंत कहीइ किउं तेह ॥११८॥ वंछड् माल मुलक जे कोई, दंडव्रत करइगा सोइ । सुणी बोल खुसी हूउ भूप, धन धन गुरु तेरा सरूप ॥११९॥ दुसमन जे वसिमसि करता, मुंसाकी दाई फिरता । ते कीआ जिउं आटामांहिं लूंण, तुझ विण समझावइ कुंण ॥१२०॥
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