Book Title: Anusandhan 2004 03 SrNo 27
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 52
________________ March-2004 45 भट्ट मिलीया जे उतकट, नाठा ते सहु दहवट्ट । जिनशासन की थिति राखी, कीउ साही अकब्बर साखी ॥१२१॥ धन्य धन्य कोडमदेनंद, जेणइ जगत्र कीउ आनंद ॥१२२।। दूहा ॥ जाण्युं तुं किउं कीजस्यइ, सबला सेती काम । . जेसंग तइ दूसमन समय, राखी मोटी माम ॥१२३॥ ढाल ॥ वाद हुउ साही हजूरि, जीत्या श्रीविजयसेनसूरि । बांभणकी करइ लोक हासी, बोल बोल्या किउं न विमासी ॥१२४॥ . हुआ ते हाकाविका, पडीया दुसमन सब फीका । एकएक्कु इयुं समझावइ, अपनो कीउ सहु को पावइ ॥१२५॥ दहा ॥ जय जयवाद वरी तिहां, श्रीगुरु मनि उलासि । श्रीसंघ अतिआग्रह थकी, लाहुर करइ चउमासि ॥१२६।। ढाल ॥ अकब्बर सहइगुरुकुं बकसइ, ते सुणतां हईडु विकसइ । नगरठठो सिंधु कच्छ, पाणी बहुलां तिहां मच्छ ॥१२६।। जिहां हुंता बहुत सिंहार, धन धन सहइगुरु उपगार । च्यार मास को जाल न घालइ, वसेषई वली वरशालइ ॥१२७॥ गाइ बलद भींस जेह, कदी कोई न मारइ तेह । गुरुवचन कोई बंदि न झालइ, मृतककेरो कर टालइ ॥१२८॥ दूहा ॥ जो गुरु साचा निस्पृही, तु मागइ अभयदान । साहि पासि करावीयां, ए अडीग्ग फुरमान ॥१२९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114