Book Title: Anusandhan 2004 03 SrNo 27
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ March-2004 करणी अयसी पालई उर भए उ वृध कइसई करि आवइ सेषई उत्तर दीध || ४३॥ जो चाहो बोलाए तु, एक अरज हमारी आलंपनां सलांमत को मेटइ दुहाई तुमारी । गुरु अपनी बराबरि कीआ ए शिष्य सुजाण सही ताकुं बोलाउ वेग लिखी फुरमांन ॥ ४४॥ ए वात सुणी तब साहि खूसी बहु मांनी श्रीविजयसेनसूरि साचे हई गुरु ग्यांनी । मेवडे दो पठउ साहि लिखी फुरमांन राधनपुरि आए जिहां गुरु गुणह निधान ॥ ४५॥ तुम्ह गुण रंजिउ हइ दिल्लीपति पतिस्याह जाकइ राति दिवस एक तुम्ह देखण की चाह । गुरुजी वडवेगई श्रीआचारिज नाम पठिउ पतिस्यापि जिउं होवइ भले काम ||४६ ॥ श्रीहीर - जेसंगजी गोठि करइ एक ठउरी पतिस्या पिं जानो आए मेवडे दउरी । इयुं कहइ आचारिज श्रीगुरु वीनती एह एक चरणनसुं मोही लागो अधिक सनेह ||४७|| विछोह विषम हइ किं गुरु वचन लोपाय इह चरणन बीनुं मोही षिन एक रह्यो न जाय । समझावइ वली वली आचार्यकुं हीर सही चाल्यो चही करो ध्यान मन धीर ॥४८॥ आचार्य चितइ किउं गुरुवचन लोपाय गुरुवचन मई करणो पांमी प्रबल पसाय । शुभ वेला जेसंगजी साथि लेइ यतीवृंद करइ वेगि पीआणो मोहनवल्लीकंद ॥ ४९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only 37 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114