Book Title: Anusandhan 2004 03 SrNo 27
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 18
________________ March-2004 11 महुरत्तणं अस्सुदपुव्वं मये सुणिदं । देवः - तर्हि अयमपि सत्ययुगानुवर्येवाऽस्ति । पिशाची : - अह किम् । उर्वशी : - ( इतोऽवलोक्य) हेजे, अवझसभासाविसारए ! तमवि किं वुत्तकामा चिट्ठसि ? । चेटी : - हुं । उर्वशी : - सामी, एसावि भट्टिणो आलावपसायं ईहई । देवः - ब्रूहिचोटी : - रज्जपहाणमणीसि पुण जहां चउब्भुय धन्नु । मंतकरण जेस रूवु जहां धणरक्खणउ किसन्नु ॥२६॥ जहिं विक्कमणयरहि रहई, सुहु जण देवह जेम्वु । धम्मह केरी वट्टडी, हल्लइ अप्पण पेम्वु ॥२७॥ घरि घरि देवा पुज्जियई, घरि घरि दिज्जै(ज्जइ) दाणु । घरि घरि महिला सीलवइ, घरि घरि धम्मह ठाणु ॥२८॥ झल्लरि तूर झणक्कडा, हुंति विहाणह संझि । दिण दिण हल्लोहलि रहइ, देवल देवल मंझि ॥२९॥ विक्रमणयरह भत्तिडी, सग्गह मज्झि पलोइ । सग्गह केरी भत्तिडी, विक्कमणयरहिं जोइ ॥३०॥ इति उपरमति । अथ गुरु: - समसंस्कृतेन, इदमेव नगरमरिबलतापविहीनं विसारिगुणपीनम् । नहि नहि पापाधीनं, भूयो भूयो वदामीनम् ॥३१॥ अथ देवः - (प्रसद्य) आलब्धमत्रैव कृतयुगसदमिति समाधाय देवनायको देवविधेयान् साधयति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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