Book Title: Anusandhan 2004 03 SrNo 27
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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March-2004
19
"अज्ञानी यत् कर्म, क्षपयति बहुवर्षकोटिभिः प्राणी ।
तत् ज्ञानी गुप्तात्मा, क्षपयति उच्छ्वासमात्रेण ॥" अज्ञानी भणीइ अजाण, जं कर्म बहु घणी वर्षनी कोडिं करीनइ क्षिपइवेइ, ज्ञानवंत सविवेकपणइं तं कर्म एक उच्छासमात्रि एक क्षणमाहि क्षपइ, तेह कर्मनइ पेलइ पारि जाइ ।।
"सर्टि वासहस्सा, तिसत्त खत्तोदएण धोएण ।
अणचिन्हं तामलिणा, अनाणतवोत्ति अप्पफला ॥" तामल रिषीश्वरिई नदीतणइ उपकंठि साठि सहस वर्ष भिक्षा आणी २१ वार जल-पाणी-सूं धोई दस दिग्पालविभाग करी शेष थाकती आहार करइ हूंतइं जं तप आचरिउं, पुणि ते तप अल्पफल जाणिवू ॥
"तामलतणइ तवेण, जिणमइ सिझसि सत्त जन्न(ण) ।
अन्नाणहअ वसेण, तामलि ईसाणइ गयउ ॥" जं तपु तामलिरिषीस्वरिं अज्ञानपणइं कीधु, तीणि तामलरिषि ईशानबीजु देवलोक, जिहां २ सागरोपम अधिकेलं आयु तिहां गिउ । तु ज्ञानतणु एवडु महिमा छै । पंचविध ज्ञान शास्त्राधिगमतु ऊपजइ ।
"अलोचनगोचारेह्यर्थे, पुरुषाणां शास्त्र तृतीयं लोचनम् ।
अनु(न)धीतशास्त्रः पुमान्, चक्षुष्मानपि अन्ध एव ॥" जे अर्थ लोचनगोचरि-चक्षुमार्गि नावइं तेहरइं शास्त्ररूपीउं त्रीजउं लोचन जाणिवउं । जे शास्त्र न जाणइ ते देखतउ अंध जाणिवउ । शास्त्र तउ जाणीइ जु सद्गुरुतणा उपदेश सांभलीइ । सद्गुरुतणा उपदेश सांभल्या पाखइ जीव हित-अहित, आचार-अनाचार, क्रिया-कुक्रिया, मार्ग-कुमार्ग, पुण्य-पाप, कृत्यअकृत्य न जाणइ । ज्ञानना प्रमाणतु महापाप- करणहार दढप्रहाररिषि सिद्धि गयु । अल्पकालि अयमत्तउ ऋषीश्वर तथा गयसुकमाल ऋषि, मेतार्य ऋषि प्रभृति अनेक ऋषीश्वर बिहं घडी माहि आठ कर्म-अठावन सु प्रकृति क्षिपी मुक्ति पाम्या, ते विवेकतणुं प्रमाण । ते विवेक शास्त्र थिकी ऊपजइ । ते शास्त्र ३ प्रकारिः धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र । पुण ईहां हिवडां धर्मशास्त्रनुं अवसर । श्रीकल्पशास्त्र बोलीइ । कल्प अनंता छइ:- रैवतकाचलकल्प,
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