Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 9
________________ अनेकान्त [ वर्ष ८ वृत्तको उन्होंने छोड़ दिया है' जोपाज अनुपलब्ध है। वार्तिकभाष्यके जवाब में ही लिखा होगा। दोनोंका नाम'पिद्धिविनिश्चय' और प्रमाण मंग्रह' तथा उनकी स्वोपज्ञ साम्य भी यही प्रकट करता है। कुछ भी हो, यह अवश्य वृत्तयांपर प्रा. अनन्तवीर्यने पानी महान् व्याख्याएँ है कि अनन्तवीयंने सबसे ज्यादा प्रज्ञाकर गुप्तका ही लिखी हैं। अकलक इन सब व्याख्याकारोंमें अनन्तवीर्य खण्डन किया है। जैसे प्रकलङ्कने धर्मकात्र्तिका । अत: का नत स्थान है और मम्भवत: वे ही अकलक प्रथम जैनन्यायसाहित्यमें अकलङ्कके टीकाकारों में अनन्तनीयका व्यायाकार हैं। प्राचार्य विद्यानन्द यद्यपि उनसे पूर्ववर्ती वही गौरवपूर्ण स्थान है जो बौद्धन्यायसाहित्य में धर्मकीर्तिके जान पढ़ते हैं. लेकिन एक तो, उनके वाहित्यका अनन्तवीयके टीकाकारों में प्रधान टीकाकार प्रज्ञाकर गुप्तको प्राप्त है और साहित्यपर कोई प्रभाव मालुप न होना । दूसरे, वे इसलिये इन्हें (अनन्तवीर्यको) जैनन्यायमाहित्यका 'प्रज्ञाकर' अष्टशतीक व्यायाकार न होकर मुग्ख्यत: स्वामी समन्तभद्र के देवागमके व्याख्याकार हैं । अत: अनन्तवीर्य अकरके प्रथम म्याग याकार कहे जाने योग्य है । अनन्तवीर्यने व्यक्तित्व, गुरुपरम्परा और प्रन्थरचना जैनसाहित्य में प्रस्तुत टीकाके कर्ता अनन्तवीर्यका जो प्रभाचन्द्र और वादिगजकी तरह प्रायः विस्तृा दानिक और शास्त्रीय चोंको न छेड़ कर अकलङ्क के पदोंके सम्मान और व्यकिव है वह इमीसे जाना जाता है कि उनके उत्तरवर्ती प्राचार्य प्रभाचन्द्र, प्राचार्य वादिगज माकांक्ष हार्द को ही पूर्णत: व्यक्त करने का यत्न किया। जैसे महान ग्रंथकारोंने उनके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक की है और व इम प्रयत्न में सफल भी हुए हैं । वे प्रकलङ्कके और अपने मार्गदर्शकके रूपमें मबहुमान, अपने ग्रंथों में प्रत्येक पद, वाक्यादिका ममामादिद्वारा योग्यतापूर्ण नामांश्लख पूर्वक उनका स्मरण किया तथा अकलकव्य ध्यान करते हैं। कहीं कहीं तो वे दो-दो, तीन-तीन भी पदोंका उन्हें मर्मज्ञ ग्यारख्याकार बतलाया है। वास्तव में व्याख्यान करते हुए पाये जाते हैं और इन व्याख्यानों द्वारा उन्होंने जिम योग्यता और बुद्धिमत्तासे अकलङ्कके पदोंके उन्होंने अकलक के गृढ पदोंको बहुत मुगम बना दिया। मर्मको खोला है वह स्तुल्य है । अकलङ्कके वाहमय में सबसे अनन्तवीर्यको हम प्रज्ञाकरगुप्तकी तरह पर पक्ष निराकरण में अधिक क्लिष्ट और दुर्गेष उनका प्रमाण संग्रह है। मिद्धिमुख्य पाते हैं। स्वपक्षपाधन तो उनके लिये उतना ही विनिश्चयटीकाके अध्ययनसे मिद्धिविनिश्चय भी प्रायः जितना मूलसे ध्वनित होता हो। अकलङ्ककी घोट यदि प्रमागासंग्रह जैमा ही क्लिष्ट और दुर्बोध प्रतीत होता है। धर्मकीतिपर है तो अनन्तवं यकी उनके प्रधान टीकाकार अनन्तवीर्यने इन्हीं दोनोंपर अपनी व्याख्याय-भार ग्रंथ प्रज्ञाकर गुप्तपर है। अपनी इम टीकामें उन्होंने प्रज्ञाकर लिग्वे हैं - लघीयस्य और न्यायविनिश्चय यद्यपि उनके गुप्तका वीसियों जगह नामोल्लेख करके उनके मतका कदर्थन मामने थे और दोनों ही अटीक थे. परन्तु अपेक्ष कृत किया है। उनके प्रमाण वात्तिकालंकारके तो अनेक स्थलों सुगम जानकर उन्हें उन्होंने छोड़ दिया और उनपर को उन्हत करके उसका पर्वाधिक समालोचन किया व्याख्या नहीं लिखी। इससे अनन्तवीर्यके बुद्धिवैभव, है। हमारा तो खयाल है कि अनन्तवार्यने सर्वप्रथम विद्वत्ता, अदम्य साहस और कर्मठताका पता लगाया जा जो प्रमाणसंग्रहालंकार या प्रमाणसंग्रहभाप्य लिखा था सकता है। अत: उनका जनसाहित्यमें सम्मानपूर्ण वह प्रज्ञाकर गुप्तके प्रमागावात्तिकालंकार या प्रमाण व्यक्तित्व है। १ सास उन्होन 'न्यायावानश्चयाववरगा' के सान्धवाक्यों में टीकाकारने अपनी टीकामें विस्तृत गुरुपरम्पग तो कुछ 'कारिकाचण' शब्दका प्रयोग किया है और जिसका नहीं दी, किंतु केवल अपने साक्षात् गुडका टीकाके प्राय: प्रत्येक प्रस्ताव के अन्त में सन्धिवाक्यों में 'रविभद्र' नाम दिया है। एक नमूना यह है'इत्याचार्यस्याद्वादनिया पतिविरचित न्यायचिनिश्चयकारिका- २ 'इति श्रीर'वभद्रपादोपजीव्यनन्तवीर्यविरचितायां मिद्धिविवरण प्रत्यक्षप्रस्तावः प्रथमः।-वीरसे०प्र०ाल. पृ० ३०६। विनिश्चयटीकाया प्रत्यक्षसिद्धिः प्रथम: प्रस्तावः ।'Page Navigation
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