Book Title: Anekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 8
________________ किरण १] प्रा० अनन्तवीर्य और उनकी सिद्धिविनिश्चय-टीका अपनेको वे भी असमर्थ पाते हैं। अनन्तवीर्य भी स्वय हैं। किन्तु तथ्य और अस्वलित ममातोचना एवं कुछ अकलक-पदोंके सम्बन्धमें क्या कहते हैं। सी भी सुनिये- अधिक गहन विचारणामें अमजदेव को हम धर्म कीर्तिसे देवस्यानन्तवीर्योऽपि पदं ब्यक्तुतु सर्वतः। कहीं भागे पाते हैं। प्रकलदेवका प्रमागासंग्रह तो न जानतेऽकलङ्कस्य चित्रमेतत्परं भुवि ॥३॥ अतुलनीय है-उसकी गहराई. जाटलता और अति. अर्थात्-'मैं अनन्तवीर्य होकर भी प्रबल के पदोंको संक्षिप्तता धर्मकीतिक प्राप्त किसी भी निबन्ध देवनको पूर्णत: व्यक्त करना नहीं जानता, यह भाश्चर्य की बात है।' नहीं मिलती। इसीसे अकल कू और धर्मकीर्तिक मास्यिका उस समय ऐसे संक्षिप्त और अर्थबहुत प्रकरणोंका सूक्ष्म अध्ययन करनेवाले प्रा० अननवार्य हो 'धर्मकीर्ति रचयिता धर्मकीर्तिको ही मुख्यतया माना जाता था। कथं गच्छेदाकलङ्क पदं ननु' यह कहना परा है। और अनन्तवर्य उनकी अकलङ्कके साथ तुलना करते हुए यह अनन्तवीर्यका प्रघोषमात्र या श्रद्धापूर्ण ही कथन नहीं लिखते हैं: है, किन्तु वह ताविक है । जो भी निष्पक्ष विद्वान् प्रकलङ्क सर्वधर्मस्य नैगम्यं कथ गन्नपि मर्वथा। के साहित्यका - न्याय-विषयक प्रकरणों का धर्म कार्तिके धर्मकीर्तिः कथं च्छेदाकलङ्कः पदं ननु ॥५॥ न्याय-प्रन्थोंके साथ सूक्ष्मता और गहराईसे तुलनामक अर्थात्-'सर्व धर्मकी निरामकताका कथन करता अध्ययन करेंगे उन्हें यह स्पष्ट हुए बिना न रहेगा और हुआ भी धर्म कीर्ति अकलङ्क-पदको-प्रकलंककी बराबरीको अनन्तवार्यक उक्त कथनकी स्वाभाविकता भी प्रनीत कैसे पा सकता है ? अर्थात् नहीं।' होजायगी। वास्तवमें प्रकलदेव भारतीय वाङ्गमयके तेजस्वी, प्रकलदेवके दो तरहके अन्य है-(१) टीका-ग्रन्थ अप्रत्तिम प्रतिभाशाली विद्वान् हैं। यद्यपि प्रकलदेवको । भौर (२) मूल-ग्रन्थ । टीकाग्रन्थ उनके दो हैं-(1) तत्वार्थ'प्रकलदेव' बनाने में प्रधानतया धर्मकीर्तिकी समालोचना वार्तिक (म्बोपज्ञ भाष्य सहित ) और (२) अशनी। पद्धति और विचार क्रान्ति ही मुख्य कारण है। धर्मकीर्ति (देवागमभाष्य --देवागमविवृति)। तत्त्वार्थधानिक प्रा. न हुए होते और वे न्यायशास्त्रपर अपने विविध निबन्ध समास्वातीक तत्त्वार्थमूत्रको विस्तृत व्याम्या है और अष्ट. (ग्रन्थ) न लिखने तो अकल देवकी बहुमुखी विद्वन्मनः शती स्वामी समन्तभद्र के देगगम (प्राप्तमामांपा) की तोषकारी प्रतिभा जागृत होऔर धर्मकात्ति के निबन्धों पाठमी श्लोक प्रमाण गढ और मूत्रामा मंक्षिप्त टीका है। को भी मातकर देने वाले न्यायशास्त्रपर अपने जिविध लघीयमय (तीन प्रकरया), २ पर्यावनिश्चय.३ मिद्धिगहन निबन्ध निखते, इसमें कुछ मन्देही है। इसलिये विनिश्चय और ४ प्रमाण संग्रह ये चार मौलिक ग्रन्थ है और मौलिकता, संक्षेपमं बहुवक्तव्यता प्रादिकी अपेक्षा उनकी इन चागेही पर उनकी म्बोपज्ञ वृत्तियां हैं। ये मय ही तुलना धर्मकीर्तिके साथ कर सकते हैं और उनके न्याय. सूत्ररूप श्रीर अर्थबहुन हैं। अष्टगतीको वेष्टित करके विनश्चय' 'मिद्धिविनिश्चय' तत्वार्थवाति' को धर्मकीर्तिके 'प्रमाणबिनिश्चय' 'प्रमाण वार्तिकसे मिला सकते हैं तथा विद्य मन्दने 'देवागम' पर अपनी विद्वत्तापूर्ण अष्टमहम्री (देवागमालङ्कार टीका जिग्बी है। लघीयम्य और उपकी जिस प्रकार धर्मकीतिक प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर पर्चर, कर्णक म्वोपज वृत्तिपर प्राचार्य प्रभाचन्द्रने 'जघीयनशालङ्कार' गामी शान्तरक्षित आदि पमर्थ टीकाकार हुए हैं। उमी अपरनाम 'न्यायकुमुद चन्द्र' नामकी विशान व्याख्या रची। प्रकार प्रकल देवके भी अनन्नवीय, विद्यानन्द, प्रभ.चन्द्र वादिराज, अभय चन्द्र प्रादि प्रौढ मर्मोद्धाटक टीकाकार हुए 'न्यायविनिश्चय' पर मात्र उमकी कारिकाओं को लेकर वादिराज ने न्यायविनिश्चयविवरगा' अथवा 'न्यायविनिश्चयालङ्कार' १ धर्मकीर्ति के निम्न ७ निबन्ध प्रामद्ध हैं नामक वैदुष्यपूर्ण वृद् व्याख्या लिखी है। उपकी स्वापज्ञ ५ न्यायविन्दु, २ हेतुविन्दु, ३ सम्बन्धपरीक्षा (मवृत्ति), . ४ वादन्याय, ५ मन्तानन्तरसिद्धि, ६ प्रमाणविनिश्चय २ देखो, न्यायविनिश्चय का०६०,६२,६३, १६६३, ३७२, ओर ७ प्रमाण वानिक (तृ. परि सवृत्ति)। ३७३, ३७४, ३७८, ३७६ आदि ।Page Navigation
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