Book Title: Anand Pravachan Part 03
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 12
________________ ११ पेट के लिए तो तुम हर समय खटपट करते हो । कभी भाषणवादी, कभी लोगों को भुलावा देनेवाली चटपटी बातें, और कभी धन कुबेरों की अथवा अफसरों की खुशामद करने में नहीं चूकते । किन्तु जब ईश्वर भजन करने का अथवा राम-नाम लेने का समय आता है, तो मानो तुम्हारी जबान गूँगी हो जाती है, अथवा तुम्हारे दाँत एक-दूसरे से चिपक जाते हैं । संत तुकाराम का एक दूसरा अभंग भी पढ़िए और उसका आनन्द लीजिए द्रव्याचि या आशा तुजला दाही दिशा न पुरती । कीर्तनाशी जाता तुझी जड़ झाली माती ॥ इस धन की अभिलाषा लिए हुए तो तुम दसों दिशाओं में जाने के लिये सदा तैयार रहते हो, यहाँ तक कि दस दिशाएँ भी तुम्हारे लिये पूरी नहीं पड़तीं । किन्तु, धर्म की साधनारूपी एक दिशा में जाना तुम्हारे लिये कठिन हो जाता है । संत तुकाराम अपने एक दूसरे अभंग में संसारी आत्माओं को उद्बोधन देते हुए कहते हैं कि " आशान्तृष्णा माया अपमानाचे बीज, नाशिलि या पूज्य होइजे ते ।” आशा तृष्णा और माया ये तीनों अपमान के बीज हैं इनका नाश करने पर ही मनुष्य पूजनीय हो सकता है । वस्तुतः भारतीय संतों ने जहाँ वैराग्यसरिता प्रवाहित की है, वहाँ उन्होंने इच्छा, तृष्णा एवं माया का भी विरोध किया है । आचार्य श्री की वाणी में, उनके अमृतमय प्रवचनों में इस प्रकार के उद्धरण स्थान-स्थान पर मोती के समान जड़ित होते रहते हैं, और उनका प्रभाव श्रोताओं के मन एवं मस्तिष्कों पर गहरी छाप छोड़ जाते हैं । इसी प्रकार आचार्य श्री के प्रवचनों में प्राकृतभाषा, संस्कृतभाषा, हिन्दी भाषा और फारसी भाषा के पद्य भी यथा-प्रसंग और यथावसर सहजभाव से उनके श्री मुख से फूल जैसे झरते रहते हैं । यह उनके अपने प्रवचनों की एक विशेता ही है कि वे अपने अनुभाव का समन्वय अपने से पूर्व आचार्यों एवं संतों की वाणी से करते जाते हैं । यही कारण है कि उनके प्रवचनों में माधुर्य एवं गांभीर्य प्रस्फुटित होता रहता है । आचार्य श्री की प्रवचन शैली बड़ी अद्भुत है, उनकी भाषा बड़ी मधुर है, और उनके भाव गम्भीर होने पर भी सर्व सामान्य जनता की पकड़ में आसानी से आ जाते हैं वक्तृत्वकला की यह सबसे बड़ी सिद्धि एवं सबसे बड़ी सफलता मैं मानता हूँ । आचार्य श्री के प्रवचनों का संकलन, संपादन एवं प्रकाशन होना प्रारम्भ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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