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परिचय पाना हो, तो आपको कम से कम वहाँ के तीन संतों का परिचय पाना ही होगा - संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, और संत समर्थ रामदास | संत ज्ञानेश्वर ने गीता पर जो ज्ञानेश्वरी टीका लिखी है, वह उनकी शिक्षा का फल नहीं है, वह उनके अनुभव का परिणाम है । संत तुकाराम ने जो अभंग छन्दों में पद्यों की रचना की है, वह किसी स्कूल की शिक्षा नहीं है, वह उनके जीवन की गहराई में से मुखरित हुआ है । संत समर्थ रामदास ने अपने दास बोध में जो कुछ लिखा है, जो कुछ बोला है, और जो कुछ उपदेश दिया है, वह कहीं बाहर से नहीं, उनके हृदय के अन्तस्तल से ही अभिव्यक्त हुआ है । महाराष्ट्र के संतों की इस पावन परम्परा की जीवन्त कड़ी है परम श्रद्वेय आचार्य सम्राट आनन्दऋषिजी महाराज । गुरु कौन हैं ? संत का लक्षण क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में अध्यात्मयोगी श्रीमद राजचन्द्र जी ने अपने आत्म सिद्धि ग्रन्थ में कहा था
आत्म-ज्ञान समदर्शिता,
विचरे उदय प्रयोग ।
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अपूर्ववाणी
परमश्रुत,
सद्गुरु लक्षण योग्य ॥
आचार्य श्री इस अर्थ में वे गुरु हैं, जिसमें समस्त लक्षण घटित हो जाते हैं । उनकी वाणी निश्चय ही अपूर्व है । उनका श्रुत निर्मल है । आत्म-ज्ञान ही उनके जीवन का लक्ष्य है । शान्त स्वभाव होने के कारण और उदार भावना के कारण समदर्शिता भी उनमें मुखरित हो उठी है । संत तुकाराम के शब्दों में वे जब महाराष्ट्र की जनता को अपनी वाणी से मन्त्र-मुग्ध कर देते हैं, तो जनता झूम उठती है । जिन लोगों ने उनकी अमृत वाणी का पान मराठी भाषा में किया है, वे कहा करते हैं कि जितना माधुर्य और जितना ओज, उनकी मराठी भाषा में है, उतना अन्य भाषा में नहीं । अपने प्रवचन के मध्य में जब
रामदास जी
समर्थ तीनों संत ही साक्षात्
वे ज्ञानेश्वर की ओवी और संत तुकाराम का अभंग तथा का " मनांचे श्लोका" बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि वे अपने सहज भाव में और सहज स्वर में बोल रहे हों। उनके प्रवचनों में मराठी भाषा की कविताएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं । जैसे—
यही कारण है कि
पोटा साठी खटपs करिशी अवघा बील । राम नाप धेता तुझी बसती दातखील ॥
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