Book Title: Anand Pravachan Part 03
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 10
________________ आदिवचन परमश्रद्धेय आचार्य सम्राट पूज्यप्रवर श्री आनन्दऋषि जी महाराज से आज कौन व्यक्ति अपरिचित होगा ? उनके परिचितों को खोज निकालना कठिन नहीं है । लेकिन उस व्यक्ति को खोज निकालना सरल बात नहीं होगी, जो उनके जादू-भरे व्यक्तित्व से आज तक अपरिचित रहा हो । समग्र जैन समाज ही आज उन्हें अपना द्वेय नहीं मानता, बल्कि जो जैन नहीं हैं, वे जैनों से भी अधिक तन्मयता के साथ, अपार निष्ठा के साथ, उन्हें अपना पूज्य मानते हैं, उन्हें अपना देवता मानते हैं, उन्हें अपना भगवान मानते हैं । वस्तुतः आचार्य श्री अपने में महानतम हैं । अभी पिछले वर्ष तक मैं महारष्ट्र में था । महाराष्ट्र प्रान्त के नगर-नगर में और ग्राम-ग्राम में मैंने परिभ्रमण किया है । आचार्यश्री की जन्मभूमि और दीक्षाभूमि भी देखने का सद्भाग्य मुझे मिला । मैं यह देखकर चकित रह गया कि महाराष्ट्र की जनता के मन पर उनके जादू-भरे व्यक्तित्व की एक अमिट छाप है । वहाँ के लोग आनन्द - विभोर होकर कहते है —– “मानव जीवन का चरम लक्ष्य है आनन्द ! और वह हमें मिल गया हैं । इस आनन्द को पाकर हम स्वयं आन्दमय चित्त में इतने निमग्न हो चुके हैं कि अब हमें किसी अन्य आनन्द की न आकांक्षा है, और न अभिलाषा ही ।" इसी को मैं व्यक्तित्व का चमत्कार कहता हूँ । यही है, जीवन की उच्चतम दशा । आज का बुद्धिवादी व्यक्ति इस भावना को श्रद्धा का अतिरेक भी कह सकता है । परन्तु यदि किसी मानव ने आज तक कुछ पाया है, तो यह सत्य है कि वह उसे श्रद्धा के अतिरेक में से ही उपलब्ध हो सका है । अर्जुन श्रीकृष्ण से जो कुछ पाया, गौतम ने महावीर से जो कुछ पाया, तथा आनन्द बुद्ध से जो कुछ पाया, वह सब कुछ श्रद्धा की चरम परिणति है | श्रद्धाशून्य व्यक्ति को कुछ भी उपलब्ध करने की निश्चित ही असंभावना है । आचार्यश्री स्वयं ही श्रद्धामय पुरुष हैं । श्रद्धा ही उनका जीवन है, और श्रद्धा ही उनका प्राण है । श्रद्धा में से श्रद्धा ही उपलब्ध हो सकती है, अश्रद्धा कभी नहीं । ने महाराष्ट्र संतों की पावन भूमि रहा है । महारष्ट्र की भूमि के कण-कण में श्रद्धा, प्रेम और सद्भाव परिव्याप्त है । यदि महाराष्ट्र का वास्तविक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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