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पर कुछ न रहे । दोनों का अन्तिम लक्ष्य है- 'स्व' और 'पर' के भेद को मिटा देना और यही आध्यात्मिक अपरिग्रह है । जैन-दर्शन यथार्थवादी बनकर इसी को अनासक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है । वह कहता है, व्यक्तियों में परस्पर भेद तो यथार्थ है, और रहेगा ही, भेद की सत्ता हमारे विकास को रोक सकती । किन्तु अपने को किसी एक वस्तु के साथ चिपका देना ही विकास की सबसे बड़ी बाधा है । इसी को मूर्छा शब्द से पुकारा गया है । इस प्रकार अपरिग्रह का सिद्धान्त समाज और व्यक्ति दोनों के विकास का मूल मंत्र बन गया है।
धन, सम्पत्ति, सन्तान, शरीर आदि बाह्य वस्तुओं में आसक्ति तो परिग्रह है ही किन्तु मेरे मन में कई बार एक विचार और भी आया । क्या अपने विचारों की आसक्ति, परिग्रह नहीं है ? यदि मनुष्य प्रत्येक 'सत्यं, शिवं सुन्दरं' को स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत रहे, अपने हृदय के द्वार खुले रखे, सत्य का अन्वेषक बनकर अपने विचारों में परिवर्तन के लिए तैयार रहे तो धर्म और ग्रन्थों के झगड़े समाप्त हो जाएँ । मेरी दृष्टि में 'विचारों में अपरिग्रह' का ही दूसरा नाम 'स्याद्वाद' है और यह जैन-धर्म की सबसे बड़ी देन है।
प्रस्तुत पुस्तक में अपरिग्रह महाव्रत के उपासक राष्ट्रसन्त कविरत्न उपाध्याय श्री अमरमुनिजी महाराज ने इसी विषय पर अपने विचार प्रकट किए हैं । उनकी भूमिका में विशाल अध्ययन और मनन तो है ही, दीर्घ-कालीन अनुभव भी है । उनके विचार समाज तथा व्यक्ति के लिए प्रकाश-दायक होंगे, ऐसी मुझे पूर्ण आशा है ।
डॉ. इन्द्रचन्द्र एम. ए., पी-एच. डी., शास्त्राचार्य, वेदान्त-वारिधि
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