Book Title: Agam 37 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Ek Adhyayan
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 21
________________ दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति : एक अध्ययन ३. यह भी हो सकता है कि इन दोनों ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ लिखी गयी हों किन्तु विवादित विषयों का उल्लेख होने से इन नियुक्तियों को पठन-पाठन से बाहर रखा गया हो और फलतः उपेक्षा के कारण कालक्रम में वे विलुप्त हो गयी हों । यद्यपि यहाँ एक शङ्का यह हो सकती है कि यदि जैन आचार्यों ने विवादित होते हुए भी इन दोनों ग्रन्थों को संरक्षित रखा तो उन्होंने इनकी नियुक्तियों को संरक्षित करके क्यों नहीं रखा? ४ ४. एक अन्य विकल्प यह भी हो सकता है कि दर्शनप्रभावक ग्रन्थ के रूप में मान्य गोविन्दनिर्युक्ति जिस प्रकार विलुप्त हो गई है, उसी प्रकार ये निर्यक्तियाँ भी विलुप्त हो गई हों । नियुक्ति साहित्य में उपरोक्त दस निर्युक्तियों के अतिरिक्त पिण्डनिर्युक्ति, ओघनियुक्ति एवं आराधनानिर्युक्ति को भी समाविष्ट किया जाता है। पिण्डनिर्युक्ति और ओघनियुक्ति कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं हैं । पिण्डनिर्युक्ति दशवैकालिक नियुक्ति का और ओघनियुक्ति आवश्यकनिर्युक्ति का एक अंश है। अतः इन दोनों को स्वतन्त्र निर्युक्ति ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है। वर्तमान में ये दोनों नियुक्तियाँ अपने मूल ग्रन्थ से अलग होकर स्वतन्त्र रूप में ही उपलब्ध होती हैं। आचार्य मलयगिरि ने पिण्डनिर्युक्ति को दशवैकालिकनिर्युक्ति का ही एक विभाग माना है, उनके अनुसार दशवैकालिक के 'पिण्डेषणा' नामक पाँचवें अध्ययन की नियुक्ति के विशद होने से उसको वहाँ से पृथक् कर पिण्डनिर्युक्ति नाम से एक स्वतन्त्र ग्रन्थ बना दिया गया। मलयगिरि स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जहाँ दशवैकालिकनिर्युक्ति को ग्रन्थकार नमस्कारपूर्वक प्रारम्भ किया, वहीं पिण्डनुिर्यक्ति में ऐसा नहीं है, अतः पिण्डनिर्युक्ति स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है। दशवैकालिकनिर्युक्ति तथा आवश्यकनुिर्यक्ति से इन्हें बहुत पहले ही अलग कर दिया गया था। जहाँ तक आराधनानिर्युक्ति का प्रश्न है, श्वेताम्बर साहित्य में इसके उल्लेख का अभाव है। प्रो०ए०एन० उपाध्ये ने बृहत्कथाकोश की अपनी प्रस्तावना' (पृ० ३१) में मूलाचार की एक गाथा पर वसुनन्दी की टीका के आधार पर इस नियुक्ति का उल्लेख किया है, किन्तु आराधनानिर्युक्ति की उनकी यह कल्पना यथार्थ नहीं प्रतीत होती है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दी एवं प्रो०ए०एन० उपाध्ये मूलाचार की उक्त गाथा के अर्थ को सम्यक् प्रकार से समझ नहीं पाये हैं। वह गाथा निम्न है आराहण णिज्जुत्ति मरणविभत्ती य संगहत्युदिओ । पच्चक्खाणावसय धम्मकहाओ य एरिसओ ।। (मूलाचार, पञ्चाचाराधिकार, २७९ )

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