________________ प्रस्तुत सूत्र में निरूपित सामायिक से ही श्रमणजीवन का प्रारम्भ होता है। प्रतिदिन प्रातः सन्ध्या के समय श्रमणजीवन की जो आवश्यक किया है इसकी शुद्धि और माराधना का निरूपण इसमें है। अत: अंगों के अध्ययन से पूर्व आवश्यक का अध्ययन आवश्यक माना गया है। एतदर्थ ही आवश्यक को व्याख्या करने की प्रतिज्ञा प्रस्तुत सूत्र में की है। व्याख्या के रूप में भले ही सम्पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या न हो, केवल ग्रन्थ के नाम के पदों की व्याख्या की गई हो, तथापि व्याख्या को जिस पद्धति को इसमें अपनाया गया है वही पद्धति सम्पूर्ण आगमों की व्याख्या में भी अपनाई गई है / यदि यह कह दिया जाय कि आवश्यक की व्याख्या के बहाने से ग्रन्थकार ने सम्पूर्ण प्रागमों के रहस्यों को समझाने का प्रयास किया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आगम के प्रारम्भ में प्राभिनिबोधिक आदि पांच ज्ञानों का निर्देश करके श्रतज्ञान का विस्तार से निरूपण किया है / क्योंकि श्रुतज्ञान का उद्देश (पढ़ने की प्राज्ञा), समद्देश (पढ़े हए का स्थिरीकरण), अनुज्ञा (अन्य को पढ़ाने की प्राज्ञा) एवं अनुयोग (विस्तार से व्याख्यान) होता है। जबकि शेष चार ज्ञानों का नहीं होता। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के उद्देशादि होते हैं वैसे ही कालिक, उत्कालिक और प्रावश्यकसूत्र के भी होते हैं / सर्वप्रथम यह चिन्तन किया गया है कि प्रावश्यक एक अंगरूप है या अनेक अंगरूप ? एक श्रुतस्कन्ध है या अनेक श्रुतस्कन्ध ? एक अध्ययनरूप है या अनेक अध्ययनरूप? एक उद्देशनरूप है या अनेक उद्देशनरूप ? समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है कि प्रावश्यक न एक अंगरूप है, न अनेक अंगरूप, वह एक श्रुतस्कन्ध है और अनेक अध्ययनरूप है। उसमें न एक उद्देश है न अनेक / अावश्यक' श्रुतस्कन्धाध्ययन का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए आवश्यक, श्रुत, स्कन्ध और अध्ययन इन चारों का प्रथक-पृथक निक्षेप किया गया है। आवश्यक निक्षेप चार प्रकार का है-- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। किसी का भी आवश्यक यह नाम रख देना नाम-प्रावश्यक है। किसी वस्तु की आवश्यक के रूप में स्थापना करने का नाम स्थापनामावश्यक है। स्थापनानावश्यक के 40 प्रकार हैं-काष्ठकर्मजन्य, चित्रकर्मजन्य, वस्त्रकर्मजन्य, लेप्यकर्मजन्य, ग्रंथिकर्मजन्य, वेष्टनकर्मजन्य, परिकर्मजन्य, (धातु आदि को पिघला कर सांचे में ढालना) संघातिकर्मजन्य (वस्त्रादि के ढकड़े जोड़ना) और अक्षकर्मजन्य (पासा) वराटककर्मजन्य (कौड़ी) इनसे प्रत्येक के दो भेद हैं--एक रूप और अनेक रूप / पुन: सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना रूप दो भेद हैं। इस तरह स्थापनामावश्यक के 40 भेद होते हैं / द्रव्यमावश्यक के आगमतः और नोआगमतः ये दो भेद हैं। आवश्यकपद स्मरण कर लेना और उसका निर्दोष उच्चारणादि करना आगमतः द्रव्यग्नावश्यक है। इसका विशेष स्पष्टीकरण करने के लिए सप्तनय की दृष्टि से द्रव्यावश्यक पर चिन्तन किया है। नोग्रागमत: द्रव्यावश्यक का तीन दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। वे दृष्टियाँ हैं शरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त / आवश्यकपद के अर्थ को जानने वाले व्यक्ति के प्राणरहित शरीर को ज्ञशरीरद्रव्यावश्यक कहते हैं। जैसे मधु या घृत से रिक्त हुए घट को भी मधुघट या धृतघट कहते हैं, क्योंकि पहले उसमें मधु या घृत था। वैसे ही प्रावश्यकपद का अर्थ जानने वाला चेतन तत्त्व, अभी नहीं है तथापि उसका शरीर है; भूतकालीन सम्बन्ध के कारण वह ज्ञशरोरद्रव्यावश्यक कहलाता है। जो जीव वर्तमान में आवश्यकपद का अर्थ नहीं जानता है, किन्तु आगामी काल में अपने इसी शरीर द्वारा उसे जानेगा वह भव्यशरीरद्रव्यावश्यक है। ज्ञशरीर और भव्यशरीर से अतिरिक्त तदव्यतिरिक्त है / वह लौकिक, कुमावनिक और लोकोत्तरीय रूप में तीन प्रकार का है। राजा, युवराज सेठ, सेनापति, सार्थवाह प्रभृति का प्रात: व सायंकालीन आवश्यक कर्तव्य वह लौकिकद्रव्यावश्यक है। कुतीथिकों की क्रियाएँ कुप्रावच निकद्रव्यावश्यक है। श्रमण के गुणों से रहित, निरंकुश, [30] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org