Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Shyamacharya, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Amrutlal Bhojak
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 743
________________ मूलसद्दो दुविहा दुसमइयं दुसमय० दुविहे पण्णवणासुत्तपरिसिट्ठाई सक्कयत्थो सुत्तंकाइ । मूलसद्दो सक्कयत्यो सुत्तंकाइ १९३६, १९४०, १९४२, दुवे १९३ [२], १९५ [२], १९४८, १९५०, १९५८, २०५ [१], २०६ [१] २०७२, २०७७ दुसमइएण द्विसामयिकेन २१५३[२], द्विविधानि ९१० [१-४], २१५६ [१], २१५७, ९११ [१-३], ९१२ २१५९[२], २१६६[१] [२-४], ९१४ [१-२], द्विसामयिकम् ८७९ ९१६ [१२], ९१८[१], दुसमऊणं द्विसमथोनम् १३६५ ९२०, ९२१ [१-२], द्विसमय ११०४ १०२४ दुसमयठितीयाइं द्विसमयस्थितिकानि द्विविधः १९८२ ८७७ [५]] दुसमयसिद्धा द्विसमयसिद्धाः ,, ९२५, ९३२, १७ ९४८, ९४९, ९५३, दुहओवत्ता द्वीन्द्रियजीवाः ५६ [१]] ९५७, १०१७, १०२० दुहणामस्स दुःखनाम्नः १६८४ [२] [१], १०२१ [१], दुहत्ताए दुःखतया १८०६ [१] १०२२ [१], १०७२, • दुहया दुःखता १६८१ [२], १६९० [३] १२७१, १२८५, १३२१, दुंबिलय द्रुम्बिलक-म्लेच्छजाति१३३०, १३३४, १३३५, विशेषः पृ. ३६ टि. ३ १३४३, १३४६,१३५५, दूभगणामाए दुर्भगनाम्नः १७०२[५१] १३६४,१३६७, १३६९, १३७१,१३७६, १३७९, दूभगणामे दुर्भगनाम १६९३ दूरतर० १३८१, १३९८, १६७०, दूरतर पृ. २९० टि. ८-९ दूरतरागं १७९६, १८१७, १९०८, दूरतरकम् १२१५ [२] १९१२, १९१६, १९१७, दूरम् १९६, १९७ [१], १९९ [१], २०० [१], १९२०, १९२४, २०२[१], २०७, २१०, पृ. ३१५ टि. २ १२१५ [१] द्विविधम् ९८३ [२], दूसरणामाए दुःस्वरनाम्नः १७०२[५२] ९८४, १४७८ [१-२], दुःस्वरनमा १६९३ १४८०, १४८२, १४८४ मथितं तक्रम् १२२० [१-२], १४८५ [१-३, देयडा दृतिकाराः-शिल्पार्याः१०६ ५-७], १४८७ [१-२], देव १७७, १७८ [१२], १५१४, १५२३ [१-२], १७९ [२], १८० [२], १५२६ [१], १६८९[१], १८२ [२], १८८, १९० १६९० [१], १६९१ [२], १९५१] तः १९७ [१, ३], १६९४ [१०, [१], १९८ [२], २०० १८], १६९५ [१] तः २०६ सूत्राणां द्वितीयद्वौ १७८[२], १८१ [२], कण्डिका, १९०५[३] तः १८४ [२], १८९ [२], १९०७ दुविहे दूसरणामे देव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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