Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02
Author(s): Shyamacharya, Punyavijay, Dalsukh Malvania, Amrutlal Bhojak
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 771
________________ " २५४ पण्णवणासुत्तपरिसिट्ठाई मूलसद्दो सक्कयत्यो सुत्तंकाइ । मूलसद्दो पम्हलेसटाणा पालेश्यास्थानानि १२४९ पयय. पम्हलेसं पद्मलेश्याम् १२२४ पम्हलेसेण पद्मलेश्येन १२५८ [४] पम्हलेस्स० पद्मलेश्या ११५५ पययदेवा पम्हलेस्सट्टाणा पद्मलेश्यारथानानि १२४७, १२४९ पम्हलेस्सं पद्मलेश्यम् १२५८ [३] पययपई पालेश्याम् १११६, १२२१,१२२२,१२२४, १२२५, १२५४, १२५५ पयरएणं पम्हलेस्सा पद्मलेश्या १११६, पयरस्स ११५६, ११६९ [१], १२२१, १२२४, १२३०, १२३२, १२३७, १२४०, ०पयरस्स १२५४, १२५५ पयरं पद्मलेश्याः २५५, ९४६, पयराभेएणं ११५५, ११७०, पयराभेदे ११८० [५, ७.८], पयला ११८२ [१, ३], ११८६ पयलाइया तः ११८८, ११९०, पयलापयला ११९१ ०पयस्स पम्हलेस्साए पद्मलेश्यायाः १२३७ पद्मलेश्यायाम् १८८५[४] पयाणं पम्हलेस्साओ पद्मलेश्याः ११८० [७-८] पयाणि पम्हलेस्साठाणा पद्मलेश्यास्थानानि १२४७ . परक्कमे पम्हलेस्साणं पद्मलेश्यानाम् २५५, परट्ठाणे ११८६, ११८७ पम्हलेस्लापरिणामे पद्मलेश्यापरिणामः ९३० ० परट्ठाणेसु पम्हलेस्से पद्मलेश्यः १२१६ [२], १३४० परपतिहिए पम्हलेस्सेहितो पद्मलेश्येभ्यः ११९१ परपरिवाएणं पयगदेवा पतगदेवाः, पदकदेवाः, परपटे पदगदेवा वा १८८ परभवियाउयं प्रकृतयः १६६४ गा.२१७ पदकः, पदगः, पतग:वानव्यन्तरेन्द्रः १९४ गा. १५३ । परमकण्हा सक्कयत्यो सुत्काइ पदक, पदग, पतग-वानव्यन्तरदेवजाति १९४ गा. १५१ पदकदेवाः पदगदेवाः पतगदेवा वा १९४ गा. १५१ पदकपतिः, पदगपतिः, पतगपतिः-वानव्यन्त रेन्द्रः १९४ गा. १५३ प्रतरकेण ८८३ प्रतरस्य ५४ [११] गा. १०६, ९१० [२], ९१८ _[१], ९२२, ९२३ प्रतरस्य ९१८ [१] प्रतरम् ९१८ [१] प्रतरभेदेन ८८७ प्रतरभेदः ८८३ प्रचला १६८० भुजपरिसर्पविशेषः८५१] प्रचलाप्रचला १६८० पदस्थ ९२१ [१] पतङ्गः ५८[१] गा. ११० पदानाम् १७९३ गा.२१८ पदानि १७०९ पराक्रमः १६८४ [१] परस्थाने १०४९,२१११, २११६ [१] परस्थानेषु २१०४ [१], २१४१ परप्रतिष्ठितः ९६० [१] परपरिवादेन १५८० परपुष्टः १२२६ परभविकायुष्कम्-परभविकायुः ५५९ गा. १८२, ६७७, ६७९, पयंगे पयडी पयते परमकृष्णाः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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