Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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से गुजरता है। जीव की उन विभिन्न स्थितियों का जैनशास्त्रकारों ने बहुत ही सूक्ष्म और विस्तृत चिन्तन विविध आयामों से किया है। विविध दृष्टिकोणों से विविध प्रकार का वर्गीकरण करके आत्मतत्त्व के विषय में विपुल जानकारी शास्त्रकारों ने प्रदान की है। वही जीवाभिगम की नौ प्रतिपत्तियों में संकलित है।
प्रथम प्रतिपत्ति-इस प्रतिपत्ति की प्रस्तावना में कहा गया है कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर परमात्मा के प्रवचन के अनुसार ही स्थविर भगवंतों ने जीवाभिगम और अजीवाभिगम की प्रज्ञापना की है। आल्पवक्तव्यता होने से पहले अजीवाभिगम का कथन करते हुए बताया गया है कि अजीवाभिगम दो प्रकार का है-रूपी अजीवाभिगम और अरूपी अजीवाभिगम। अरूपी अजीवाभिगम के दस भेद बताये हैं-धर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश, अधर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश, आकाशस्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश और अद्धासमय (काल)। धर्मास्तिकायादि का अस्तित्व
जैनसिद्धान्तानुसार धर्म गति-सहायक तत्त्व है और अधर्म स्थिति-सहायक तत्त्व। आकाश और काल को अन्य दर्शनकारों ने भी माना है परन्तु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को जैनसिद्धान्त के सिवाय किसी ने भी नहीं माना है। जैन सिद्धान्त की यह सर्वथा मौलिक अवधारणा है। इस मौलिक अवधारणा के पीछे प्रमाण और युक्ति का सुदृढ़ आधार है। जैनाचार्यों ने युक्तियों के आधार से सिद्ध किया है कि लोक और अलोक की व्यवस्था के लिए कोई नियामक तत्त्व होना ही चाहिए। जीव और पुद्गल जो गतिशील हैं उनकी गति लोक में ही होती है, अलोक में नहीं होती। इसका नियामक कोई तत्त्व अवश्य होना चाहिए। अन्यथा जीव और पुद्गलों की अनन्त 'अलोकाकाश में भी गति होती तो अनवस्थिति का प्रसंग उपस्थित हो जाता और सारी लोकव्यवस्था छिन्नभिन्न हो जाती अतएव जैन तार्किक चिन्तकों ने गतिनियामक तत्त्व के रूप में धर्म की और स्थितिनियामक तत्त्व के रूप में अधर्म की सत्ता को स्वीकार किया है।
आधुनिक विज्ञान ने भी गतिसहायक तत्त्व को (Medium of Motion) स्वीकार किया है। न्यूटन और आइंस्टीन ने गति तत्त्व स्थापित किया है। वैज्ञानिकों द्वारा सम्मत ईथर (Ether) गति तत्त्व का ही दूसरा नाम है । लोक परिमित है। लोक के परे अलोक अपरिमित है। लोक के परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती। लोक के बाहर उस शक्ति का अभाव है जो गति में सहायक होती है। प्रभु महावीर ने कहा है कि जितने भी स्पन्दन हैं वे सब धर्म की सहायता से होते हैं। यदि धर्मतत्त्व न होता तो कौन आता? कौन जाता ? शब्द की तरंगे कैसे फैलतीं? आंखें कैसे खुलती ? कौन मनन करता ? कौन बोलता ? कौन हिलताडुलता? यह विश्व अचल ही होता। जो चल हैं उन सबका निमित्त गति सहायक तत्त्व धर्म ही है। इसी तरह स्थिति का सहायक अधर्म तत्त्व न होता तो कौन चलते-चलते हो ठहर पाता? कौन बैठता ? सोना कैसे होता? कौन निस्पन्द बनता ? निमेष कैसे होता? यह विश्व सदा चल ही बना होता जो गतिपूर्वक स्थिर हैं उन सबका आलम्बन स्थिति सहायक तत्त्व अधर्म-अधर्मास्तिकाय है।
उक्त रीति से धर्म-अधर्म के रूप मे जैन चिन्तकों ने सर्वथा मौलिक अवधारणा प्रस्तुत की है। आकाश की सत्ता तो सब दार्शनिकों ने मानी है। आकाश नहीं होता तो जीव और पुद्गल कहाँ रहते ? धर्मस्तिकाय अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते ? काल कहाँ वरतता ? पुद्गल का रंगमंच कहाँ बनता ? यह विश्व निराधार ही होता।
___ काल औपचारिक द्रव्य है। निश्चयनय की दृष्टि से काल जीव और अजीव की पर्याय है। किन्तु व्यवहार नय की दृष्टि से वह द्रव्य है। क्योंकि वर्तना आदि उसके उपकार हैं। जो उपकारक है वह द्रव्य है। पदार्थों की स्थितिमर्यादा आदि के लिए जिसका व्यवहार होता है वह आवलिकादि रूप काल जीव-अजीव की पर्याय होने से
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