Book Title: Agam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० ५, ब्रहस्पतिदत्तवर्णनम् ४५७ तथैव-पूर्वोक्तप्रकारेणैव तत्र पश्यति हस्तिनः अश्वान् पुरुषान् । 'तेसिं मझे एगं पुरिसं पासइ' तेषां मध्ये एकं पुरुषं पश्यति । दृष्ट्वा भगवतो गौतमस्य 'चिंता' मनसि संकल्पः पूर्ववत् समुदपद्यत । 'तहेव' तथैव-पूर्ववद् भगवत्समीपे समागत्य भैक्षं पदय,वन्दित्वा नमस्यित्वा गौतमा भगवन्तं 'पुच्छइ' पृच्छति । 'भगवं तस्स पुन्वभवं' भगवान् तस्य पुरुषस्य पूर्वभवं 'वागरेइ' व्याकरोति-कथयति ।।मू० २॥
॥ मूलम् ॥ एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे सव्वओभद्दे णाम णयरे होत्था राजमार्ग पर आ निकले 'तहेव पासइ हत्थी आसे पुरिसे' जैसा पहिले के अध्ययनों में प्रकट किया जा चुका है-उसी माफिक इन्हों ने उस राजमार्ग में अनेक हाथियों का घोडों का और राजपुरुषों का विशाल समूह देखा। और साथ में तेर्सि मज्झे एगं पुरिसं पासइ' उनके बीच में एक ऐसा पुरुष देखा जो उन पुरुषों द्वारा विशेष रूप से ताडित कर दुःखी किया जा रहा था, जो अपने इस जीवन में ही नरकाधिक वेदना की भोग रहा था। 'चिंता तहेव पुच्छइ पुत्वभवं भगवं वागरेइ' इस प्रकार उसकी अत्यंत दयनीय दशा का निरीक्षण कर भगवान गौतम के चित्त में एक विशेष प्रकार की विचारधारा उत्पन्न हुई। वहां से आते ही उन्हों ने प्राप्त भिक्षान्न प्रभु कों दिखलाकर एवं वन्दना और नमस्कार कर मार्ग में घटित इस घटना के विषय में भगवान से पूछा। भगवान उसके पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाने लगे।॥ सू० २ ॥
पासह हत्थी आसे पुरिसे वीशत पडलाना मध्ययनामा छेते प्रभारतमाते રાજમાર્ગમાં અનેક હાથીઓના, અનેક ઘોડાઓના અને રાજપુરુષના વિશાલ સમૂહને
या अने साथ साथै 'तेसिं मज्झे एगं पुरिसं पासइ' तेना पये मे मेवो પુરુષ જોયે જેને, ઉપર જણાવેલા પુરુષ વિશેષરૂપથી મારીને દુઃખી કરતા હતા, पाताना स वनमा न२४थी पधारे वहनाने सागवी रह्यो उता. 'चिता तहेव पुच्छइ पुव्वभवं, भगवं वागरेइ' मा ४२ तनी सत्यात ४३ान ६शाने જોઈને ભગવાન ગૌતમના ચિત્તમાં એક વિશેષ પ્રકારની વિચારધારા ઉત્પન્ન થઈ. ત્યાંથી પાછા આવતાં જ જે ભિક્ષા મળેલી તે તેમણે પ્રભુને બતાવીને વંદના તથા નમસ્કાર કરીને રાજમાર્ગમાં જે જેએલી ઘટના તે વિષે ભગવાનને પૂછયું. ભગવાન તેના પૂર્વભવને વૃત્તાન્ત સંભળાવવા લાગ્યા (સૂ૦ ૨)
શ્રી વિપાક સૂત્ર