Book Title: Agam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 739
________________ १४ विपाकश्रुते 'अंतिए' अन्तिके समीपे 'धम्मं धर्म-श्रुतचारित्रलक्षणम् अगारानगारलक्षणम्= धर्म ‘सोच्चा' श्रुत्वा ‘णिसम्म' निशम्य ग्राह्यत्वेन हृद्यवधार्य 'हट्टतुटूठे हृष्टतुष्टः हृष्टो हृदये प्रफुल्लः, तुष्टो मनसि तृप्तः सन् 'उठाए' उत्थया= स्वकृतोत्थानक्रियया 'उठेइ' उत्तिष्ठति, ‘उद्वित्ता' उत्थाय 'जाव' यावत् श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा ‘एवं वयासी' एवमवादीत्-'सद्दहामि णं' श्रद्दधामि='इदं यथार्थमस्ती'-त्येवं विश्वसिमि खलु, 'भंते' हे भदन्त ! 'निग्गंथं पाबयणं' नैर्ग्रन्थं प्रवचनं 'जाव' यावत्-'पत्तियामि णं भंते निग्गथं पावयणं' 'पत्तियामि णं' प्रत्येमि='यथा भगवता प्रतिबोध्यते तथैव जीवादिस्वरूपमस्ती'ति प्रतीतिं करोमि खलु हे भदन्त ! नैग्रन्थं प्रवचनम् । 'रोयाभि पं.' रोचयामि= पीयूषधारावद् वाञ्छामि खलु हे भदन्त ! नैग्रन्थं श्रमण भगवान् महावीर के समीप श्रुतचारित्ररूप धर्मका स्वरूप सुनकर एवं उसका अच्छी तरह मनन कर हृदय में अत्यंत प्रफुल्लित और मन में खूब संतुष्ट होता हुआ अपने स्थान से स्वयं उठा 'उहित्ता' और उठकर 'जाव एवं वयासी' प्रभुकी उसने वंदना की और नमस्कार किया । पश्चात् इस प्रकार बोला-' सहामि णं भंते णिग्गथं पावयणं जाव' हे भदंत ! मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं-मैं मानता हूं कि निर्ग्रन्थ प्रवचन ही यथार्थ है, ऐसा मुझे दृढ विश्वास है 'पत्तिया मि णं भंते निग्गंथं पावयणं रोयामि णं' निर्ग्रन्थ कथित प्रवचन की ही मैं "आप जैसा समझाते हैं वैसाही जीवादिक तत्वों का यथार्थ स्वरूप है" इस रूप से प्रतीति करता हूं। आपका प्रवचन अमृतधारा के समान है नाथ ! मैं आपके इस प्रवचन में रुचि करता हूँ। ત–ચારિત્ર રૂપ ધર્મના સ્વરૂપને સાંભળીને અને સારી રીતે તેનું મનન કરી અંતરમાં ઘણાજ પ્રસન્ન થયા, અને મનથી ખૂબ સંતોષ પામ્યા. પછી પિતાના સ્થાનથી પિતે ४या 'उहिता' हा 'जाव एवं वयासी' प्रभुने तरी बहना ४ी-नभ२४।२ अर्या पछी २॥ प्रमाणे माझ्या- 'सदहामि णं भंते णिग्गंथं पावयणं जाव' महन्त! હું આપના નિન્ય પ્રવચન પર શ્રદ્ધા કરૂ છું, હું માનું છું કે નિર્ચન્જ પ્રવચનજ सायु छ, यथाथ छे, मे शत भने ८ वि छ ' पत्तियामि णं भंते निग्गंथं पावयणं रोयामि गं' नि-2 डसा अवयनामाई "५२वी शते समय छ।. તેવીજ રીતે જીવાદિક તનું યથાર્થ સ્વરૂપ છે.” અને તે પ્રમાણે જ હું માનું છું. સ્વીકારું છું. આપનું પ્રવચન અમૃતધારા સમાન હોવાથી હું આપના એ પ્રવચનોમાં રૂચી ધરાવું છું. શ્રી વિપાક સૂત્ર

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