Book Title: Agam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० ७, उदुम्बरदत्तवर्णनम्
५७३ साध-मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिजनमहिलाभिः सार्धं 'आसाएंति'४ आस्वादयन्ति विस्वादयन्ति, परिभाजयन्ति, परिभुजते, 'आसाइत्ता ४' आस्वाद्य, विस्वाद्य, परिभाज्य, परिभुज्य च 'दोहलं विणेति' दोहदं विनयन्ति-पूरयन्तीति । अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण 'संपेहेइ' संप्रेक्षते गङ्गदत्ता भार्या स्वमनसि विचारयति, 'संपेहित्ता' संप्रेक्ष्य-विचार्य 'कल्लं जाव जलंते' कल्ये यावज्ज्वलति आगामिनि दिवसे सूर्योदये सति 'जेणेव' यत्रैव 'सागरदत्ते सत्थवाहे' सागरदत्तः सार्थवाहः 'तेणेव तत्रैव 'उवागच्छइ' उपागच्छति, 'उवागच्छित्ता सागरदत्तं सत्यवाहं एवं वयासी' उपागत्य सागरदत्तं सार्थवाहमेवमवादीत्-'धन्नाओ णं ताओ जाव' धन्याः खलु ता अम्बाः यावत् पूर्वक्तिवत्-याः स्वदोहदं 'विणेति' विनयन्ति 'त' तत्-तस्मात् कारणात् इच्छामि णं' इच्छामि खलु 'जाव' यावत् - अपने मित्रादि परिजनों की महिलाओं के साथ खाती हैं, आस्वादती हैं, विभक्त कर दूसरों को देती हैं, और स्वयं भी उसका परिभोग करती हैं। 'आसाइत्ता दोहलं विणेति' इस प्रकार आस्वादनादि क्रियापूर्वक जो माताएँ अपने दोहले की पूर्ति करती हैं वे माताएँ धन्यातिधन्य हैं 'एवं संपेहेइ' इस प्रकार उसने विचार किया । 'संपेहिता' विचार कर के वह फिर 'कल्लं' प्रातःकाल 'जाव जलं ते' जब सूर्य की आभा चारों ओर फैल चुकी तब 'जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छइ' उठ कर जहां अपने पति सागरदत्त थे वहाँ पहूंची । 'उवागच्छित्ता सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी' पहुँचते ही उसने सागरदत्त सेठ से इस प्रकार कहा 'धण्णाओ णं ताओ जाव विणेति' वे माताएँ धन्य हैं जो इस२ प्रकार से अपने दोहले को पूर्ण करती हैं, दोहले की पूर्ति के लिये इसने जो कुछ भावनाएँ अपने मन में पल्लवित की थीं, તે ચતુર્વિધ આહારને અને વિવિધ પ્રકારની મદિરાને પિતાના મિત્રાદિ પરિજનેની મહિલાઓ સાથે ખાય છે. સ્વાદ લે છે. ભાગ પાડીને બીજાને આપે છે અને પોતે પણ તેને પરિભેગ ४३ छे. 'आसाइता दोहलं विणेति'मा प्रमाणे मारवाहनाहि जियापूर्व भातामा पोताना होडया-(मनोरथ)ने पूर्ण ४२छेते धन्यातिधन्य छे. एवं संपेहेई' याप्रमाणे तेरे विचार यो 'संपेहिता' विया२ शत शत 'कल्लं' प्रात:स 'जाव जलंते न्यारे सूर्यन | याश्य मान्नु at गयां त्यारे 'जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छइ' ने न्यो पोताना पति सा२४त्त ता त्यां पडायी, 'उवागच्छित्ता सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी' पहायतांनी साथे तेथे सागत शहने मा प्रभारी छु 'धण्णाओ णं ताओ जाव विणेति' ते भातामा धन्य छ २ मा प्रभाव पाताना होडसा-मनारयने પૂર્ણ કરે છે. દેહલાની પૂર્તિ માટે તેણે જે કાંઇ ભાવના પિતાના મનમાં ખીલવી
શ્રી વિપાક સૂત્ર