Book Title: Agam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 715
________________ ६९७ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० १०, अञ्जूवर्णनम् अश्ववाहनिकाय 'णिज्जायमाणे' निर्यान्-निर्गच्छन् 'जहा' वेसमणदत्ते' यथा वैश्रवणदत्तः वैश्रवणदत्तनामको राजा देवदत्तां प्रासादोपरि कनककन्दुकेन क्रीडन्तीं दृष्टवान् 'तहा' तथाऽयं विजयमित्रो राजाऽपि 'अंजू अजूं दारिकां 'पासई' पश्यति किन्तु 'णवरं' नबरं अयं विशेषः-विजयमित्रो राजा 'अप्पणो अट्ठाए' आत्मनोऽर्थाय-स्वस्य प्रयोजनाय 'वरेइ' वृणुते । वैश्रवणदत्तस्तु स्वपुत्रस्य विवाहार्थमिति भावः । 'जहा तेतली' यथा तेतलिः तेतलिपुत्रप्रधानवत् 'जाव' यावत् - ज्ञाता-धर्मकथाङ्गमूत्रस्य चतुर्दशाध्ययनवर्णिततेतलिपुत्रप्रधानवद् विजयमित्रो राजाऽपि 'अंजूए भारियाए सद्धिं ' अज्या भार्यया सार्धम् 'उप्पिं जाव' उपरि यावत्-उपरिप्रासादे उदारान् मानुष्यान् भोगभोगान् भुजानः 'विहरई' विहरति । वाहणियाए' अश्ववाहनीकामें 'णिज्जायमाणे निकलने पर 'जहावेसमणदत्ते' वेसमण दत्त की तरह जिस प्रकार अपने प्रासाद के ऊपर सुवर्ण को कंदुक से खेलती हुई देवदत्ता को अश्वक्रीडा के लिये जाते समय वैश्रवणदत्त राजाने देखी थी, ठीक इसी तरह अश्वक्रीडा के लिये जाते समय विजयराजाने प्रासाद के ऊपर सुवर्णको गेंद से क्रीडा करती हुई 'अंजु पासइ' इसअंजू दारिकाको देखो। 'णवरं' परन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि वैश्रवणदत्त राजाने देवदत्ता का पाणिग्रहण संस्कार अपने पुत्रके साथ किया था, तब कि विजय राजाने 'अप्पणो अट्ठाए' अंजू का पाणिग्रहण स्वयं अपने ही साथ किया 'जहा तेतली जाव अंजूए भारियाए सद्धिं उप्पिं जाव विहरइ' ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के १४ वे अध्ययन में वर्णित तेतलिपुत्र की तरह विजयमित्र राजाने भी अंजू भार्या के साथ अपने महलों में रह कर सर्वोत्कृष्ट मनुष्यभवसंबंधी कामभोगों को भोगा। 'तए घोडीमा मेसीने 'णिज्जायमाणे' नया त्यारे 'जहा वेसमणदत्ते' 2 प्रभारी દેવદત્તા પિતાના મહેલ ઉપર સેનાના ગેડી–દડાથી રમતી હતી તેને વૈશ્રવણદત્ત રાજાએ मी . ४२वा ndi मते न ती. ५२।१२ ते प्रमाणे मा 'अंजुं पासह' અંજૂ દારિકા (બાળકી) ને પણ વિજય રાજાએ અશ્વક્રીડા કરવા જતાં મહેલના ઉપરના भागमा सोनाना गेड1-४थी. २मती ४. 'णवरं ' ५२न्तु महिं मेटी विशेषता छ કે, વૈશ્રવણુદત્ત રાજાએ દેવદત્તાને વિવાહ-પાણગ્રહણ સંસ્કાર પિતાના પુત્ર સાથે કર્યો डतो. त्यारे विभयो 'अप्पाणो अट्ठाय वरेइ' मनi ar मुह पातानी साथ। ४. 'जहा तेतली जाव अंजूए भारियाए सद्धि उप्पि जाव विहरइ ' ज्ञाताધર્મકથાગ સૂત્રમાં ૧૪ ચૌદમાં અધ્યયનમાં વણ ન કરેલા તેતલીપુત્રના પ્રમાણે વિજયમિત્ર રાજાએ પણ અંજૂ ભાયાની સાથે પિતાના મહેલમાં રહીને સત્કૃષ્ટ મનુષ્યભવ શ્રી વિપાક સૂત્ર

Loading...

Page Navigation
1 ... 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809