Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 24
________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक १.-परिचयः पाठान्तरम्, तत्र कर्मारिहन्तृभ्यः. आह च-"अट्ठविहं पि य कम्मं अरिभूअं होइ सयलजीवाणं, तं कम्ममरि हंता अरिहंता तेण चंति." 'अरुहन्ताणं' इत्यपि पाठान्तरम्, तत्रारोहयोऽनुपजायमानेभ्यः, क्षीणकर्मबीजत्वात्. आह च-"दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः, कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः." नमस्करणीयता चैषां भीमभवगहनभ्रमणभीतभूतानामनुपमानन्दरूपपरमपदपुरपथप्रदर्शकत्वेन परमोपकारित्वादिति. अईतः ६. णमो अरहंताणं' इत्यादि. अहीं 'नमः' ए नैपातिक (निपातरूप अव्यय) पद द्रव्यर्नु अने भावनुं संकोचार्थक छे. 'कहुं छे के:- नमः ए पद द्रव्यन अने भावनुं संकोचार्थक छे." 'नमः' एटले हाथ, पग अने मस्तक वडे सुप्रणिधानरूप नमस्कार. कोने नमस्कार हो। तो कहेछे के नमः अतोने. इन्द्रे निर्मली अशोकादि महापातिहार्यरूप पूजाने जे योग्य छे ते अर्हत्. कयुं छे के:-"वंदेन, नमस्कारने जे योग्य अर्हत्-अरहोन्तर्. छे, पूजा, सत्कारने जे योग्य छे, अने सिंधिगमनने जे योग्य छे तेथी ते अर्हत् कहेवाय छे. अथवा 'अरहोन्तर्यः-जेने सर्वज्ञताने लीधे सर्व वस्तुसमूहगत प्रच्छन्नतानो अभाव होई रह (एकान्तरूप प्रदेश) नथी, तेम ज गिरिगुहादिनो अन्तर(मध्यभाग) नथी अर्थात् जे सर्वज्ञपणाथी एकान्त अरथात. प्रदेश अने मध्य प्रदेशने पण जोइ शके छे तेमने ( नमस्कार हो.) अथवा 'अरथान्तेभ्यः-एटले जेने सकल परिग्रहोपलक्षणभूत रथ नथी अने वृद्धावस्थादि उपलक्षणवाळो अन्त (विनाश) नथी ते 'अरथान्त' तेमने (नमस्कार हो.) अथवा 'अरहन्ताणं एटले क्षीणरागताने लीधे जे कशामां अरइयत. पण आसक्ति राखता नथी ते 'अरहन्त' तेमने (नमस्कार हो.) अथवा 'अरहयङ्ग्यः' एटले प्रकृष्ट रागना कारणभूत मनोहर अने अन्य विषयनो संबंध थवा छतां पण जे पोताना वीतरागतारूप स्वभावने त्यागता नथी तेमने (नमस्कार हो.) 'अरिहंताणं' एम पाठान्तर छ अरिहंत. तेथी कर्मरूपशत्रुने हणनार तेमने (नमस्कार हो.) एम अर्थ करवो, कयुं छे के:--"आठ प्रकारनुं कर्म सर्व जीवोना शत्रुरूप छे; ते अरोहत. कर्मशत्रुने जे हणे ते · अरिहंत' कहेवाय छे." 'अरुहंताणं' एवो पण पाठ छ, 'अरोहयः' एटले कर्मबीज क्षीण थवाथी जेने फरी उत्पत्ति नथी अर्थात् जेने फरी जन्मवू नथी ते 'अरुहंत' तेमने (नमस्कार हो. ) कम्युं छे के:-" बीज बळी गया पछी जेम अत्यंत-सर्वथा अंकुर अईदुपकार. फूटतो नथी, तेम कर्मबीज बळी जतां भवांकुर (जन्मान्तर ) उगतो नैथी". भयंकर भवारण्यनां भ्रमणथी भयभीत थयेला प्राणीओने अर्हन्नमस्करणीयता. अनुपम आनन्दस्वरूप परमपदनगरना मार्ग दर्शाववारूप तेओना परम उपकारिपणाने लीधे तेओनी नमस्करणीयता (नमस्कारनी योग्यता) छे. ७. णमो सिद्धाणं'ति- "सितं बद्धम् - अष्टप्रकारं कर्मेन्धनम्, ध्मातं दग्धं जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते निरुक्तविधिना सिद्धाः. अथवा 'षिधु गतौ' इति वचनात् सेधन्ति स्म अपुनरावृत्त्या निर्वृतिपुरीमगच्छन्. अथवा 'षिधु संराद्धौ' इति वचनात् सिद्धयन्ति स्म निष्ठितार्था भवन्ति स्म. अथवा 'पिधूञ् शास्त्रे माङ्गल्ये च' इति वचनात् सेधन्ति स्म शासितारोऽभूवन् , माङ्गल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः. अथवा सिद्धा नित्या अपर्यवसानस्थितिकत्वात्, प्रख्याता वा भव्यरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात्. आह च-"ध्मातं सितं येन पुराणकर्म यो वा गतो निर्वृतिसौधमूर्तीि, ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमङ्गलो मे." अतस्तेभ्यो नमः. नमस्करणीयता चैषामविप्रणाशिज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यादिगुणयुक्ततया स्वविषयप्रमोदप्रकर्षोत्पादनेन भव्यानामतीवोपकारहेतुत्वादिति. सिद्धः ७. णमो सिद्धाणं'ति-आठ प्रकारना कर्मरूप इन्धनने शुक्ल ध्यानामिथी जेणे बाळी नांख्या छे ते (निरुक्तविधि प्रमाणे) 'सिद्ध,' (तेमने नमस्कार सिद्धशम्दार्थ. हो.) अथवा गत्यर्थक ‘षिध' धातु उपरथी सिद्ध एटले अपुनरावृत्तिथी जेओ निर्वृतिपुरीमा पहोंच्या-गया-ते 'सिद्ध,' (तेमने नमस्कार हो.) अथवा निष्पत्यर्थक 'पिधु' धातु उपरथी सिद्ध एटले जेमना अर्थ निष्पन्न थया छे-जेओ कृतकृत्य थया छे ते सिद्ध, (तेमने नमस्कार हो.) अथवा शास्त्रार्थक अने माङ्गल्यार्थक 'बिधूम्' धातु उपरथी 'सिद्ध'एटले जेओ शासनकर्ता थया अथवा तो जेओ मंगलत्वना स्वरूपने अनुभवे छे-जेओ मंगलरूप छे ते सिद्ध,' (तेमने नमस्कार हो.) अथवा सिद्ध एटले नित्य-कारण के तेमनी स्थिति अविनाशी छे तेमने, अथवा भव्य जीवोने जेमनो गुणसमूह उपलब्ध होवाथी जे प्रसिद्ध छे ते 'सिद्ध,' (तेमने नमस्कार हो.) कयुं छे केः-"जेणे बांधलं प्राचीन कर्म दग्ध कर्यु छे, जे निर्वृतिरूप महेलना शिखरे पहोंची गया छे, जे ख्याता सिद्धोपकारः छे, अनुशासन करनार छे अने कृतार्थ छे ते सिद्ध प्रभु मारामाटे कृतमंगल थाओ" आम होवाथी ते सिद्धोने नमस्कार करेलो छे. तेओ अविनाशी सिझनमस्करणीयता, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादिगुणयुक्त होवाथी खविषय आनन्दोत्कर्षना उत्पादक होई भव्य जीवोना उपर अप्रतिम उपकारिपणाने लीधे नमस्कार करवायोग्य छे, ते तेमनी नमस्करणीयता छे. १. प्र.छायाः-अष्टविधमपि च कर्मारिभूतं भवति सकलजीवानाम् , तं कारिं हन्तारोऽरिहन्तारस्तेनोच्यन्ते.-आवश्यकनियुक्तो नमस्कारनियुक्तिः. २. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे दशमाध्याये सप्तमसूत्रभाष्येऽष्टमः श्लोकः, ३. एतत्समानप्राकृतम्-बीआण पुणरवि अग्गिदढाणं अंकुरुप्पत्ती ण भवइ, एवामेव सिद्धाणं कम्मबीए दढे पुनरवि जम्मुप्पत्ती ण भवइ.-औपपातिक सूत्रे (क. आ०) पृ--३४८. ४. इदं 'सिद्धशब्द विवेचनं प्रज्ञापनोपाझे प्रथमपदे, 1२. (क. आ.) १. आ अर्थ 'विशेषावश्यक'नी २८४० मी.गाथामा छे. तेनी व्याख्या आ प्रमाणे छ:-हवे पदद्वार कहीए छीए. पद एटले जेथी अर्थनुं ज्ञान थाय ते. ते पद पांच प्रकारचं छे. नामिक, नैपातिक, औपसर्गिक, आख्यातिक, अने मिश्र, तेमां 'अश्व' ए नामिक, 'खलु' ए नेपातिक, 'परि' ए औपसर्गिक, 'धावति' ए आख्यातिक अने 'संयत' ए मिश्र पद छे. ए प्रमाणे पांच प्रकारना नामादि संभवे छे तो कहे छे के- 'नेवाइयं पर्य'ति. अर्हत् वगेरे पदोनी शरुआतमा अने छेडे जे निपते ते निपात. तेथी आवेलं, तेथी बनेल अथवा ते ज, खार्थिकप्रत्यय थवाथी 'नैपातिक' कहेवाय. अने 'नमः' ए नेपातिक पद छे. ए प्रमाणे पदद्वार का. हवे पदार्थद्वार कहे छे के, दन्व-भावसंकोयण पयत्थो'ति, अहीं 'नमोऽहन्यः' इत्यादिमा जे 'नमः' ए पद छे, तेनो पूजारूप अर्थ ते पदार्थ छे, ते पूजा कइ? तो कहे छे के-'दव्व-भावसंकोयण'त्ति द्रव्यसंकोचन अने भावसंकोचन, द्रव्यसंकोचन एटले हाथ, माधुं अने पग वगेरेनुं संकोचवू अने भावसंकोचन एटले विशुद्धमन- अर्हत् वगेरेना गुणोमा निवेशन करवु. २. आ गाथा आवश्यक नियुक्तिमां, नमस्कारनियुक्तिमा छे. ३.भा अर्थ तत्त्वार्थाधिगमा १० मा अध्यायमा ७ मा सूत्रना भाष्यना ८ मा श्लोकमां छे. ४. आ पाठने मळता प्राकृत पाठ औपपातिक सूत्र (क. आ.) मा ३४८ में पाने छे. ५. मा 'सिद्ध' शब्दनुं विवेचन प्रज्ञापना उपांग (क. आ.)मा २ जे पाने छ,- अनु. 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