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याचारांग सून
हिसा न करे और संयमी हो जाने पर स्वदन्दी न बने । साधुता का
आकांनी, प्रत्येक जीव के सुख का विचार करके समस्त लोक में किसी को परिताप न दे किसी की हिना न करे। संयम की ओर ही लक्ष्य रखने वाला और असयम के पार पहुंचा हुण्या स्वियों से विरक्त हो कर निवेदपूर्वक रहे। वह गुणवान और ज्ञानी किमी प्रकार का पापकर्भ न करे । [१५४]
जो सत्य है वही साधुता है; और जो माधुता है, वही सत्य है । जो शिथिल है, ढीले है, कामभोगो मे लोलुप है, वक्र प्राचार वाले हैं, प्रमत्त है और घर-धन्धे में ही लगे रहते हैं, उनको साधुना प्राप्त नहीं हो सकती। [१५५ ]
मुनि बनकर शरीर को बराबर वश में रखो। सम्यग्दी वीर मनुष्य बचा-खुचा और रुखा-सूखा खाकर ही जीते हैं। पापकर्मी से उपरत ऐसे वीरो को कभी रोग भी हो जावे तो भी वे उनको सहन करते हैं। इसका कारण यह कि वे जानते हैं कि शरीर पहिले भी ऐसा ही था और फिर भी ऐसा ही है। शरीर सदा नागवान, अध्रुव अनित्य, अशाश्वत, घटने-बढ़ने वाला और विकारी है। ऐसा सोचकर वह संयमी बहुत समय तक दुखो को सहन करता रहता है। ऐसा मुनि इस संसार प्रवाह को पार कर सकता है। उसी को मुक्त
और विरत कहा गया है, ऐसा मै कहता हूं। संयम में रत और विपयो से मुक्त और विरत रहने वाले मनुष्य को संसार में भटकना नहीं पड़ता। [१२५, १४७, १४८]
जिस प्रकार निर्मल पानी से भरा हुआ और अच्छे स्थान पर स्थित जलाशय अपने आश्रित जीवों की रक्षा का स्थान होता है, उसी