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'प्रवज्या लेकर, में बिना घर-बार का, धन-धान्य पुत्र श्रादि से रहित, और दूसरो का दिया हुआ खाने वाला श्रमण होऊँगा और पापकर्म कभी नहीं करूँगा । हे भगवन् । दूसरो के दिये बिना किसी वस्तु को लेने का ( रखनेका ) प्रत्यारयान ( त्याग का नियम ) करता हूँ ।"
सातवाँ अध्ययन -(•)
अवग्रह
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ऐसा नियम लेने के बाद भिक्षु, जाने पर दूसरो के दिये बिना कोई से न करावे और कोई करता हो तो प्रवज्या लेने वाले भिक्षुग्रो के पात्र, दंड अनुमति लिये बिना और देखभाल किये न ले । [ १५५ ]
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भिक्षु, सराय यदि स्थान देख कर, वह स्थान अपने योग्य है या नहीं यह सोच कर फिर उसके मालिक या व्यवस्थापक से वहां ठहरने की ( शय्या अ ययन के सूत्र ६ - ६०, पृष्ठ के अनुसार ) श्रनुमति ले ।
राजधानी में
गाव नगर या वस्तु ग्रहण न करे, दूसरों ग्रनुमति न दे। अपने साथ यादि कोई भी वस्तु उनकी बिना, साफ किये बिना,
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श्रवग्रह का श्रर्य
अपनी वस्तु- -परिग्रह' और 'निवासस्थान' दोनों होते हैं, इस अत्ययन में दोनो के सम्बन्ध के नियमो की चर्चा है
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