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सुभापित
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संयमी अपने अन्त समय तक युद्ध में पागे रहने वाले वीर के समान होता है । ऐसा मुनि ही पारगामी हो सकता है । किसी भी प्रकार के कष्ट से न घबराने वाला और अनेक दुःखो के याने पर भी पाट के समान स्थिर रहने वाला वह संयमी शरीर के अन्त तक काल की राह देखे पर घबरा कर पीछे न हटे पेला मैं कहता हूं।
न सका फासमवेएउं फास सयभागयं । रागद्दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिव्वए । (अ० १६)
इन्द्रियो के सम्बन्ध में आने वाले विपयको अनुभव न करना शक्य नहीं है, परन्तु उसमे जो रागद्वेप है, उसको भितु त्याग दे।
उद्देसो पासगस्स नत्थि । कुसले पुण नो बढे नो मुक्के । से ज्जं च आरभे जंच नारभे । अणारद्धं च नारभे । छणं छणं परिन्नाय लोगसन्नं च सव्वसो । (२ : १०३) __जो ज्ञानी है उनके लिये कोई उपदेश नहीं है । कुशल पुरुष कुछ करे या न करे, उससे वह बद्ध भी नहीं है और मुक्त भी नहीं है । ती भी लोक रुचि को बराबर समझ कर और समय को पहिचान कर वह कुशल पुरुप पूर्व के महापुरुषो के न किये हुए कर्मों को नहीं करता ।
जमिणं अन्नमन्न-विइगिच्छाए पडिलेहाए न करे। पावं कम्मं किं तत्थ, मुणी कारण सिया ? समय तत्यु'वेहाए अप्पाणं विप्पसायए । (३:११५) ।
एक-दूसरे की लज्जा या भय से पाप न करने वाला क्या मुनि है ? सन्चा मुनि तो समता को समझ कर अपनी आत्मा को निर्मल करने वाला होता है ।
अणगारे, उज्जुकडे नियागपडिवान्ने, अमायं कुव्वमाणे वियाहिए। जाए सद्धाए निक्खन्तो, तमेव अणुपालिया; वियहित्तु विसात्तियं पणया वीरा महावीहि । (१:१८-२०)