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तीसरी भावना-निर्ग्रन्थ लोभ का
श्राचारांग सूत्र
त्याग करे क्योकि लोभ में
कारण सत्य बोलना सम्भव है ।
चौथी भावना - निर्ग्रन्थ भय का त्याग करे क्योंकि भय के कारण सत्य बोलना सम्भव है ।
पांच भावना - निर्ग्रन्थ हंसी का त्याग करे क्योंकि सी के कारण सत्य बोलना सम्भव है ।
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इतना कर परने ही कह सकते हैं कि उसने महान का बरावर पालन किया । ( आदि पहिले वन के अनुसार )
तीसरा महाव्रत -- मैं सब प्रकार की चोरी का यावज्जीवन त्याग करता हूँ | गांव, नगर या चन में से थोडा या अधिक, वदा या छोटा, सचित्त या चित्त कुछ भी दूसरो के दिये बिना न उठा लूँ. : न दूसरो से उठवाऊँ न किसी को उठा लेने की अनुमति हूँ | ( श्रादि पहिले के अनुसार 1)
इस महाव्रत की पाच भावनाएँ ये है |
पहिली भावना - निर्ग्रन्थ विचार कर मित परिमाण में वस्तुएं मांगे ।
दूसरी भावना - निर्ग्रन्थ मांग लाया हुश्रा श्राहार- पानी ग्राचार्य श्रादि को बता कर उनकी श्राज्ञा से ही खावे ।
तीसरी भावना - निर्ग्रन्थ अपने निश्चित परिमाण में ही वस्तुएँ मागे ।
चौथी भावना - निर्ग्रन्थ वारवार वस्तुग्रो का परिमाण निश्चित कर के मांगे ।
पांचवीं भावना-निर्ग्रन्थ सहधर्मियो के सम्बन्ध में ( उनके लिये या उनके पास से ) विचार कर और मित परिमाण में ही वस्तुएं मांगे ।