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श्राचारांग सूत्र
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स्थान मिलने के बाद, उस मकान से दूसरे श्रमण ब्राह्मण श्रादि पहिले से ठहरे हों, उनके पात्र आदि वस्तुएँ इधर-उधर न करे, वे ऊंघते हो तो न जगावे । संक्षेप में, उनको दुःखकारक या प्रतिकूल हो, ऐसा न करे । [ १६ ]
वहां अपने समान धर्मी या सहभोजी सदाचारी साधु श्रावें तो उनको अपना लाया हुआ थाहारपानी, पाट-पाटला बिछाने की वस्तुएँ श्रादि देने के लिये कहें, पर दूसरों के लाये हुए ग्राहार- पानी यदि के लिये बहुत प्राग्रह न करे । [३२६ - १७]
वहां गृहस्थ या उनके पुत्र ग्रादि के पास से सूई, उस्तरा, कान -सली या नेरनी श्रादि वस्तुएँ वापिस लौटाने का वचन देकर अपने लिये ही मांग लाया हो तो उनको दूसरो को न दे पर अपना काम पूरा होते ही उसे गृहस्थ के पास ले जाये, और पने खुले हाथ मे या जमीन पर रख कर, यह है, यह है,' ऐसा कहे; खुद उसके हाथ में न दे । [ १७ ]
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किसी श्रमराई में ठहरा हो और ग्राम खाने की इच्छा हो जाय तो जीवजन्तु वाले ग्राम, और जिमको काटकर, टुकड़े करके निर्जीव न किया हो, न ले । जो ग्राम जीवजन्तु से रहित, चीरकर टुकड़े कर निर्जीव किया हुया हो, उसको ले ।
गन्ने के खेत या लहसुन के खेत में ठहरा हो तो भी ऐसा ही करे । [ १६० ]
भिक्षु उपरोक्त दोष टाल कर नीचे के सात नियमो मे से एक नियम के अनुसार स्थान को प्राप्त करे ।
१. सराय आदि स्थान देखकर वह स्थान अपने योग्य है या