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গান্য
দূর
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नहीं करूगा, चा ने दूसरों की सेवा नही सगा और न उनगे अपनी ही काउंगा,-तो अपने नियम को बराबर समझ कर उस पर दृढ रहे। [१५]
इस प्रकार की अपनी प्रतिज्ञानी पर ड रहना सत्य न हो तब प्रतिज्ञा भंग करने के बदले अाहार न्याग कर मरण स्वीकार करने पर प्रतिज्ञा न छोटे । शान, त्यागी तथा मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले भिनु के लिय ऐसे • योगो में यही श्रेय है, यही उनके लिये मरण का योग्य अवसर है । (आदि मूत्र २१५ के अनुमार) [२७]
बुद्धिमान भिक्षु जिग्न प्रकार जीने की इच्छा न करे, उसी प्रकार मरने की इच्छा पी न करे। मोन के इच्छुक को तटस्थता पूर्वक अपनी प्रतिज्ञारूप समाधि की रक्षा करना चाहिये, और श्रान्तर तथा बाह्य पदार्थों की ममता त्याग कर श्रात्मा को (प्रतिज्ञा भग से) नष्ट न होने देने की इच्छा करना चाहिये। अपनी प्रतिज्ञा रूप समावि की रक्षा के लिये जो उपाय ध्यान मे ग्रावे, उमी का तुरन्त प्रयोग करे। अन्त मे अशक्य हो जाय तो वह गांव में अथवा जंगल मे जीव-जन्तु से रहित स्थान देवकर वहा घाम का विछौना बनावे । फिर आहार का त्याग करके उस बिछौने पर वह भिनु अपने शरीर को रख दे और मनुष्य प्रादि उनको जो संक्ट हैं उनको सहन । करे पर मर्यादा का उलंघन न करे। [४--] नोट-यहा ५ से २५ तक पाठवे उद्देशक की संरया है ।
इसमें सूत्र मरया नहीं है। ऊपर नीचे चलने वाले और वहां फिरने वाले जीव-जन्तु उस भिक्षु के मांस-लोही को खाचें तो वह उनको मारे नहीं और उनको