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साचारांग सूत्र
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कोई भिक्षु एक पात्र और तीन वनधारी हो या एक पात्र और दो वस्त्रधारी हो या एक पात्र और एक बावारी हो तो उसे यह न चाहिये कि वह एक वन और मांगे । हेमन्तऋतु के बीतने पर ग्रीष्म के प्रारम्भ में अपने जीर्ण बन्यो को त्याग कर ऊपर का और एक नीचे का बन्ध रखे या एक ही चम्म रो या वस्त्र ही न रख, भिक्षु को जैसे वसा लेने योग्य हो, बसे ही पहले, वह उनको न धोये और न धोये हुए या रंगे हा वस्त्र ही पहने। गाव बहार जाते समय कोई उसे लूटने की इन्छा करे तो वह अपने चम्नो को छिपाचे नहीं और न ऐसे वा ही कर पहने । [-११-२१२]
ऐसा करने वाला भिक्षु उपाधि से मुक्त हो जाना है और उसका तप बटता है । यह वस्त्र धारी का प्राचार है । भगवान द्वारा वताए हुए इस मार्ग को बरावर समझ कर वह समभाव से रहे । [२१३-२१४]
जो भिक्षु बिना वस्त्र के रहता हो, उसको ऐसा जान पडे कि मैं तृण-स्पर्श, ठंड, गरमी, डास-मच्छर के उपद्रव तथा दूसरे संक्टों को सहन कर सकता हूँ, परन्तु अपनी लज्जा ढाके बिना नहीं रह सकता तो वह एक कटिबन्ध स्वीकार कर ले । बिना वस्त्र के ठंड गरमी आदि अनेक दुःख सहने वाला वह भिक्षु उपाधि से मुक्त हो जाता है और उसका तप बढ़ता हे । [ २२३-२०४]
यदि भिक्षु कामवासना के वशीभूत हो जाय और उसको वह सहन न कर सकता हो तो वह वसुमान और समझदार भिनु स्वयं अकार्य मे प्रवृत्ति न करके आत्मघात कर ले । ऐसे संयोगो में उसके लिये ऐसा करना ही श्रेय है, यही मरण का योग्य अवसर है, यही उसके संसार को नष्ट करने वाली वस्तु है, यही उसके लिये धर्माचार