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भगवान महावीर का तप
करते रहते थे। सदा आकांक्षा रहित रहने वाले भगवान किसी समय ठंडा अन्न खाते, तो किसी समय छै, पाठ, दस या बारह भक्त के बाद भोजन करते थे। [५८-६० ]
गांव या नगर में जाकर वे दूसरो के लिये तैयार किया हुआ आहार सावधानी से खोजते थे । श्राहार लेने जाते समय मार्ग में भूखे प्यासे कौए आदि पक्षियो को वैठा देखकर, और ब्राह्मण, श्रमण, भिखारी अतिथि, चाडाल, कुरे, विल्ली आदि को घरके आगे देखकर, उनको आहार मिलने में बाधा न हो या उनको अग्रीति न हो, इस प्रकार भगवान वहाँ से धीरे धीरे चले जाते और दूसरे स्थान पर अहिसा पूर्वक भिक्षा को खोजते थे। कई बार भिगोया हुआ, सूखा या ठंडा आहार लेते थे, बहुत दिनो की खिचडी, बाकले, और पुलाग (निस्सार खाद्य) भी लेते थे। ऐसा भी न मिल पाता तो भगवान शांतभाव से रहते थे। [६२-६७]
___ भगवान नीरोग होने पर भी भरपेट भोजन न करते थे और न औपधि ही लेते थे। शरीर का स्वरूप समझ कर भगवान उसकी शुद्धि के लिये संशोधन (जुलाब), वमन, विलेपन, स्नान और दंत प्रक्षालन नहीं करते थे। इसी प्रकार शरीर के आराम के लिये वे अपने हाथ-पैर नहीं दववाते थे। [५१-५५ ] ___कामसुखो से इस प्रकार विरत होकर वे अबहुवादी ब्राह्मण विचरते थे। उन्होने कपायो की ज्वाला शांत कर दी थी और उनका दर्शन विशद था। अपनी साधना में वे इतने निमन थे कि उन्होने कभी अपनी आंख तक न ममली और न शरीर को ही खुजाया । रति और अरति पर विजय प्राप्त करके उन्होने इस लोक के और