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आचारांग सूत्र
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कतरी होने से निर्जीव होगई हो तो ही ले । इसी प्रकार उंबरी, बड, पीपल, पीपली श्रादि के चूर्ण कच्चे या कम पिसे हुए, सजीव हो तो न ले । अधपकी हुई शाकभाजी, या सड़ी हुई शहद, मद्य, घी, खोल, श्रादि वस्तुएँ पुरानी हो जाने के कारण उनमें जीवजन्तु हो तो न ले | अनेक प्रकार के फल, कंद आदि चाकू से कतरे हुए निर्जीव हो तो ही ले । इसी प्रकार अन्न के दाने, दाने वाली रोटी, चावल, चावल का घाटा, तिल्ली, तिलपापडी श्रादि निर्जीव न हो तो न ले ।
तिल्ली का चूरा और
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८ ]
भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा लेते समय गृहस्थ के घर किसी को जीमते देख कर उससे कहे कि, ' हे आयुपगन् । इस भोजन मे से मुझे कुछ ढो ।' यह सुन कर वह अपने हाथ वर्तन या कड़छी ठंडे सजीव पानी से अथवा ठंढा हो जाने पर सजीव हुए गरम पानी से धोने लगे तो भिक्षु को कहना चाहिये कि, 'हाथ या वर्तन को सजीव पानी से धोए बिना ही तुमको जो देना हो दो ।' इतने पर भी वह हाथ श्रादि धोकर ही देने लगे तो भिन्नु उसको सजीव और सढोप मान कर न ले । इसी प्रकार यदि गृहस्थ ने भिक्षु को भिक्षा देने के लिये ही हाथ धोये न हो पर यो ही वे गीले हो अथवा मिट्टी या अन्य सजीव वस्तु से वे भरे हुए हो तो भी ऐसे हाथो से दिया जाने वाला आहार वह न ले । परन्तु यदि उसके हाथ ऐसी किसी चीज़ से भरे हुए न हो तो वह निर्जीव और निर्दोष श्राहार को ले ले । [ ३३ ]
पोहे, ठि, चावल आदि को गृहस्थ ने जीवजन्तु, बीज या वनस्पति जैसी सजीव वस्तु लगी हुई शिला पर बाटा हो, बांटता हो या वाटने वाला हो, अथवा हवा में उनको उफना हो, उफनता हो