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याचारांग सूत्र
प्रयत्नशील बने। ऊंची नीची और तिरछी सा दिशाओ में प्रवृत्ति मात्र से प्रत्येक जीव को होने वाले दुख को जान कर बुट्टिमान सकाम प्रवृत्तिया न करे न कराराचे और न करते हुए को अनुमति दे । जो ऐसी प्रवृत्तियां करते है, उनसे संयमी दूर रहे । विविध प्रवृत्तियों के स्वरूप को राम कर संयमी किसी भी प्रकार का ग्रारम्भ न करे । जो पाप कर्म से निवृत्त है, वही सच्चा वासना रहित है । [२००-१] (२)
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संयमी भिक्षु अपनी भिक्षा के सम्बन्ध के प्राचार का बराबर पालन करे, ऐसा कुछ पुरुरो ने कहा है । [ २०४ ]
साधारण नियम यह है कि ( गृहस्थ ) स्वधर्मी या परधर्मी साधुको खान-पान, मेवा - मुखवास, वस्त्र - पात्र, कवल - रजोहरण न दे, इनके लिये उनको निमन्त्रण न दे, और इन वस्तुओ से यादरपूर्वक उनकी सेवा भी न करे [ १६७ ]
इसी प्रकार सद्धर्मी साधु सद्धर्मी साधु को खान-पान, वस्त्र आदि न दे या इन वस्तुओ के लिये उनको निमन्त्रण देकर उनकी सेवा भी न करे हो, सद्धर्मी साबुकी सेवा करे । [२०५ -६]
स्मशान में, उजाड़ घर में, गिरिगुहा में वृक्ष नीचे, कुंभार के घर या अन्य स्थान पर साधन करते, रहते, बैठते, विश्राति लेते र विचरते हुए भिक्षु को कोई गृहस्थ ग्राकर सान-पान वस्त्र आदि के लिये निमन्त्रण दे, और इन वस्तुओ को हिसा करके, खरीद लाकर, छीन कर दूसरे की उडा लाकर या अपने घर से लाकर देना चाहे या मकान बनवा देकर वहा खा-पी कर रहने के लिये कहे तो भिक्षु कहे कि, हे आयुष्यमान् । तेरी बात मुझे स्वीकार नहीं है क्योकि मै ने इन प्रवृत्तियो को त्याग दिया है । [ २०२ ]