________________
लोकसार
[ ३७
मनुष्य जितेन्द्रि हो कर विचरे । जो अपने कार्य सफल करना चाहता है, उस वीर मनुष्य को ज्ञानी की आज्ञा के अनुसार पराक्रम करना चाहिये । [ १०३, १६८ ]
गुरु परम्परा से ज्ञानी के उपदेश को जाने अथवा जाति स्मरण ज्ञान से या दूसरे के पास से सुनकर जाने । गुरुकी श्राज्ञाका कदापि उल्लंघन न करे और उसे वरावर समझ कर सत्य को ही पहिचाने । [ १६७,१६८ ]
१
www
जिसको तू मारता है, वह तू ही है, जिसको तू वश में करना चाहता है, वह भी तू ही है; जिसको तू परिताप देना चाहता है, वह भी तू ही है; जिसको तू दबाना चाहता है, वह भी तू ही है; जिसको तू मार डालना चाहता है, वह भी तू ही है। ऐसा जान कर वह सरल और प्रतिबुद्ध मनुष्य किसी का हनन नहीं करता और न कगता ही है । वह मनुष्य ओजस्वी होता है, जिसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं है ऐसे प्रतिष्ट श्रात्मा को वह जानता है । [ ६६४ १६५, १७० ] ऊपर, नीचे और चारो तरफ कर्म के प्रवाह वहते रहते हैं । इन प्रवाहो से आसक्ति पैदा होती हैं, वही संसार में भटकाने का कारण है । ऐसा समझ कर चेदवित् (ज्ञानवान् ) इनसे मुक्त हो । इन प्रवाहों को त्याग कर और इनसे बहार निकल कर वह पुरप कम हो जाता है । वह सब कुछ बरावर समझता और जानता है । जन्म और मृत्यु का स्वरूप समझ कर वह किसी प्रकार की इच्छा नहीं करता । वह जन्म और मृत्यु के मार्ग को पार कर चुका होता है । जिसका मन बहार कहीं भी नहीं भटकता, ऐसा वह समर्थ मनुष्य किसी से भी पराभव पाये बिना निरावलम्बन ( भोगो के श्रालम्बन से रहितता - श्रात्मरति ) में रह सकता है । [ १६६, १६७ )
1
.