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'श्राचारांग सूत्र
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कर्मों के नाश का इच्छुक संयमी मुनि उनके स्वरूपको समझ कर संयम से क्रोध श्रादि कपायो का नाश करता है। जिन प्रवृत्तियों से हिंसक लोगो को जरा भी घृणा नहीं होनी, उन प्रवृत्तियों के स्वरूप को वह जानता है। वहीं क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त हो सकता है और ऐसे को ही क्रोध आदि को नष्ट करने वाला कहा गया है। [१८४, १८५]
प्रयत्नशील, स्थितात्मा, अरागी, अचल, एक स्थान पर नहीं रहने वाला और स्थिरचित्त वह मुनि शांति से विचरा करता है। भोगों की श्राकांता नही रखने वाला और जीवों की हिंसा न करने चाला वह दयालु भिक्षु बुद्धिमान् कहा जाता है। संयम में उत्तरोत्तर वृद्धि करनेवाला वह प्रयत्नशील भिन्नु जीवो के लिये' असंदीन' (पानी मे कभी न डूबने वाली) नौका के समान है। आर्य पुरुषो का उपदेश दिया हुया धर्म भी ऐसा ही है। [ १६५, १८७ ]
तेजस्वी, शान्तदृष्टि और वेदवित् (ज्ञानवान) संयमी संसार पर कृपा करके और उसका स्वरूप समझकर धर्म का कथन और विवेचन करे । सत्य के लिये प्रयत्नशील हो अथवा न हो पर जिनकी उसको सुनने की इच्छा हो ऐसे सव को सयमी धर्म का उपदेश दे । जीव मात्र के स्वरूप का विचार कर वह वैराग्य, उपशम, निर्वाण शोच, ऋजुता, निरभिमान, अपरिग्रह और अहिंसा रूपी धर्म का उपदेश दे। [१६४]
___ इस प्रकार धर्म का उपदेश देने वाला भिक्षु स्वयं कष्ट में नहीं गिरता और न दूसरो को गिराता है । वह किसी जीव को पीड़ा नहीं देता। ऐमा उपदेशक महामुनि दुःख में डूबे हुए सब जीवो को 'अमंदीन' नाव के समान शरणरूप होता है ।