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प्राचागंग सूत्र
अन्य मनुष्यो को मार्ग बतलाते हैं। और कितने ही वीर उनकी आना के अनुसार पराक्रम करते ही हैं तो कितने की श्रात्मा के ज्ञान को न जानने वाले संसार में भटकते रहते है। [ १८१, १७.]
धर्म स्वीकार करके सावधान रहे और किसी में ग्रामनि न रसे । महामुनि यह सोचकर कि यह सत्र मोहमय ही है, संयम से ही लीन रहे । लब प्रकार से अपने सगे-सम्बन्धियों को त्याग कर मेरा कोई नहीं है, मैं किसी का नहीं हूं ऐसा लोचकर विरन मुनि को सयम में ही यत्न करते हुए विचरना चाहिये । इस प्रकार का जिन की प्राजा के अनुसार आचरण करना ही उत्कृष्टवाद कहलाना है । उत्तम धर्म के स्वरूप को समझ कर दृष्टिमान पुत्प परिनिर्वाण को प्राप्त करता है। जो फिर संसार में नहीं आते. वे ही सच्चे 'अचेलक' (नग्न) हैं। [१८३-१८४,१६५]
शुद्ध प्राचारवाला और शुद्ध धर्मवाला मुनि ही कर्मों का नाश कर सकता है। वरावर समझ कर संसार के प्रवाह से विल्ड चल कर संयम धर्म का प्राचरण करने वाला मुनि, तीण, मुक्त और विरत कहलाता है। इस प्रकार बहुत काल तक संयम में रहते हुए विचरने वाले भिक्षु को अरति क्या कर सकती है ? [ १८५-१८७ ]
ऐले संयमी को अन्तकाल तक युद्ध में आगे रहने वाले वीर की उपमा दी जाती है। ऐसा ही मुनि पारगामी हो सकता है। क्मिी भी क्ष्ट से न डर कर और पूर्ण स्थिर और दृढ रहने वाला बह संयमी शरीर के अन्त समय तक काल की राह देखता रहे पर दुखो से घबरा कर पीछे न हटे। बहुत समय तक संयम धर्म का पालन करते हुए विचरने वाले इन्द्रिय निग्रही पूर्वकाल के महापुस्पोने जो सहन किया है, उस तरफ लक्ष्य रखो। [१६६, १८५]