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पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन
आध्यात्मिक भजन संग्रह ३७. भजो आतमदेव, रे जिय! भजो आतमदेव, लहो ....
असंख्यात प्रदेश जाके, ज्ञान दरस अनन्त । सुख अनन्त अनन्त वीरज, शुद्ध सिद्ध महन्त ।।रे जिय. ।।१।। अमल अचलातुल अनाकुल, अमन अवच अदेह । अजर अमर अखय अभय प्रभु, रहित-विकलप नेह ।।रे जिय. ।।२।। क्रोध मद बल लोभ न्यारो, बंध मोख विहीन । राग दोष विमोह नाहीं, चेतना गुणलीन ।।रे जिय. ।।३ ।। वरण रस सुर गंध सपरस, नाहिं जामें होय । लिंग मारगना नहीं, गुणथान नाहीं कोय ।।रे जिय. ।।४।। ज्ञान दर्शन चरनरूपी, भेद सो व्योहार । करम करना क्रिया निहचै, सो अभेद विचार ।।रे जिय. ।।५।। आप जाने आप करके, आपमाहीं आप। यही ब्योरा मिट गया तब, कहा पुन्यरु पाप ।।रे जिय. ।।६।। है कहै है नहीं नाहीं, स्यादवाद प्रमान ।
शुद्ध अनुभव समय ‘द्यानत', करौ अमृतपान ।।रे जिय. ।।७।। ३८. भवि कीजे हो आतमसँभार, राग दोष परिनाम डार ....
कौन पुरुष तुम कौन नाम, कौन ठौर करो कौन काम ।।भवि. ।।१।। समय समय में बंध होय, तू निचिन्त न वारै कोय ।।भवि. ।।२।।
जब ज्ञान पवन मन एक होय, 'द्यानत' सुख अनुभवै सोय ।।भवि. ।।३।। ३९. भ्रम्योजी भ्रम्यो, संसार महावन, सुख सो रमन्त पुद्गल जीव एक करि जान्यो, भेद-ज्ञान न सुहायोजी।।भ्रम्यो. ।। मनवचकाय जीव संहारे, झूठो वचन बनायो जी। चोरी करके हरष बढ़ायो, विषयभोग गरवायो जी ।।भ्रम्यो. ।।१।। नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, साधारण वसि आयो जी। गरभ जनम नरभव दुख देखे, देव मरत बिललायो जी।।भ्रम्यो.।।२।।
'द्यानत' अब जिनवचन सुनै मैं, भव मल पाप बहायो जी।
आदिनाथ अरहन्त आदि गुरु, चरनकमल चित लायो जी।।भम्यो. ।।३।। ४०. भाई! अब मैं ऐसा जाना.....
पुद्गल दरब अचेत भिन्न है, मेरा चेतन वाना।।भाई. ।। कल्प अनन्त सहत दुख बीते, दुखकौं सुख कर माना। सुख दुख दोऊ कर्म अवस्था, मैं कर्मन” आना ।।भाई. ।।१।। जहाँ भोर था तहाँ भई निशि, निशिकी ठौर बिहाना। भूल मिटी निजपद पहिचाना, परमानन्द-निधाना ।।भाई. ।।२।। गूंगे का गुड़ खाँय कहैं किमि, यद्यपि स्वाद पिछाना । 'द्यानत' जिन देख्या ते जानें, मेंढक हंस पखाना ।।भाई. ।।३।। ४१. भाई कौन कहै घर मेरा.....
जे जे अपना मान रहे थे, तिन सबने निरवेरा।।भाई. ।। प्रात समय नृप मन्दिर ऊपर, नाना शोभा देखी। पहर चढ़े दिन काल चालतें, ताकी धूल न पेखी ।।भाई. ।।१।। राज कलश अभिषेक लच्छमा, पहर चढ़ें दिन पाई। भई दुपहर चिता तिस चलती, मीतों ठोक जलाई।।भाई. ।।२।। पहर तीसरे नाचैं गावै, दान बहुत जन दीजे । सांझ भई सब रोवन लागे, हा-हाकार करीजे ||भाई. ।।३।। जो प्यारी नारीको चाहै, नारी नरको चाहै। वे नर और किसीको चाहैं, कामानल तन दाहै ।।भाई. ।।४ ।। जो प्रीतम लखि पुत्र निहोरें, सो निज सुतको लोरै। सो सुत निज सुतसों हित जोरै, आवत कहत न ओरें ।।भाई. ।।५।। कोड़ाकोड़ि दरब जो पाया, सागरसीम दुहाई। राज किया मन अब जम आवै, विषकी खिचड़ी खाई।।भाई. ।।६।।
तू नित पोखै वह नित सोखै, तू हारै वह जीते। an ___ 'द्यानत' जु कछु भजन बन आवै, सोई तेरो मीतै ।।भाई. ।।७।।
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(१३)