Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 70
________________ १३८ आध्यात्मिक भजन संग्रह पण्डित भागचन्दजी कृत भजन १५. महिमा जिनमतकी (राग दीपचन्दी) महिमा जिनमत की, कोई वरन सकै बुधिवान ।।टेक।। काल अनंत भ्रमत जिय जा बिन, पावत नहिं निज थान । परमानन्दधाम भये तेही, तिन कीनों सरधान ।।१।। भव मरुथल में ग्रीष्मरितु रवि, तपत जीव अति प्रान । ताको यह अति शीतल सुंदर, धारा सदन समान ।।२।। प्रथम कुमत मनमें हम भूले, कीनी नाहिं पिछान । 'भागचन्द' अब याको सेवत, परम पदारथ जान ।।३ ।। १६. थांकी तो वानी में हो (राग मल्हार) थांकी तो वानी में हो, निज स्वपरप्रकाशक ज्ञान ।।टेक ।। शीतल होत सुबुद्धिमेदिनी, मिटत भवातपपीर ।।१।। करुनानदी बहै चहुँ दिसितै, भरी सो दोई तीर ।।२।। 'भागचन्द' अनुभव मंदिर को, तजत न संत सुधीर ।। ३ ।। १९. मेघघटासम श्रीजिनवानी (राग मल्हार) मेघघटासम श्रीजिनवानी ।।टेक।। स्यात्पद चपला चमकत जामें, बरसत ज्ञान सुपानी ।।१।। धरम सस्य जातें बहु बा, शिवआनंदफलदानी ।।२।। मोहन धूल दबी सब याते, क्रोधानल सुबुझानी ।।३।। 'भागचन्द' बुधजन केकीकुल, लखि हरखै चितज्ञानी ।।४।। २०. म्हांकै घट जिनधुनि अब प्रगटी (राग सोरठ) म्हांकै घट जिनधुनि अब प्रगटी ।।टेक।। जागृत दशा भई अब मेरी, सुप्त दशा विघटी। जगरचना दीसत अब मोकों, जैसी रँहटघटी ।।१।। विभ्रम तिमिर-हरन निज दृगकी, जैसी अंजनवटी। तातें स्वानुभूति प्रापतितें, परपरनति सब हटी ।।२ ।। ताके बिन जो अवगम चाहै, सो तो शठ कपटी। तातें 'भागचन्द' निशिवासर, इक ताहीको रटी ।।३ ।। २१. अहो यह उपदेशमाहीं (राग काफी) अहो यह उपदेशमाहीं, खूब चित्त लगावना। होयगा कल्यान तेरा, सुख अनंत बढ़ावना ।।टेक ।। रहित दूषन विश्वभूषन, देव जिनपति ध्यावना । गगनवत निर्मल अचल मुनि, तिनहिं शीस नवावना ।।१।। धर्म अनुकंपा प्रधान, न जीव कोई सतावना। सप्ततत्त्वपरीक्षना करि, हृदय श्रद्धा लावना ।।२।। पुद्गलादिकते पृथक्, चैतन्य ब्रह्म लखावना। या विधि विमल सम्यक्त धरि, शंकादि पंक बहावना ।।३।। रुचें भव्यनको वचन जे, शठनको न सुहावना ।। चन्द्र लखि जिमि कुमुद विकसै, उपल नहिं विकसावना ।।४ ।। 'भागचन्द' विभाव तजि, अनुभव स्वभावित भावना । या बिन शरन्य न अन्य जगतारण्य में कहुँ पावना ।।५।। sa kabata (७०)

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