Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 111
________________ २२० आध्यात्मिक भजन संग्रह ९०४. मैं ही सिद्ध परमातमा मैं ही सिद्ध परमातमा, मैं ही आतमराम । मैं ही ज्ञाता ज्ञेय को, चेतन मेरो नाम ।।१।। मोही बाँधत कर्म को, निर्मोही छूट जाय । तातें गाढ़ प्रयत्न से, निर्ममता उपजाय ।।२।। काहे को भटकत फिरे, सिद्ध होने के काज । राग-द्वेष को त्याग दे, भैया सुगम इलाज ।।३।। राग-द्वेष के त्याग बिन, परमातम पद नाहि । कोटि-कोटि जप-तप करो, सबहि अकारथ जाहि ।।४।। लाख बात की बात यह, कोटि ग्रंथ का सार । जो सुख चाहे भ्रात तो, आतम-अनुभव करो ।।५।। ९०५. परमात्म-भावना रागादिक दूषण तजै, वैरागी जिनदेव । मन वच शीस नवायके, कीजे तिनकी सेव ।।१।। जगत मूल यह राग है, मुकति मूल वैराग। मूल दुहुन को यह कह्यो, जाग सके तो जाग ।।२।। कर्मनकी जर राग है, राग जरे जर जाय । प्रकट होत परमातमा, भैया सुगम उपाय ।।३।। काहे को भटकत फिरे, सिद्ध होन के काज । राग-द्वेष को त्याग दे, भैया सुगम इलाज ।।४ ।। राग-द्वेष के त्याग बिन, परमातम-पद नाहिं । कोटि-कोटि जप-तप करो, सबहि अकारथ जाहिं ।।५।। जो परमातम सिद्ध में, सोही या तन माहिं । मोह मैल दृगि लगि रह्यो, तातें सूझे नाहिं ।।६।। विभिन्न कवियों के भजन परमातम सो आतमा, और न दूजो कोय। परमातम पद ध्यावतै, यह परमातम होय ।।७।। मैं ही सिद्ध परमातमा, मैं ही आतमराम । मैं ही ज्ञाता ज्ञेय को, चेतन मेरो नाम ।।८।। मैं अनंत सुख को धनी, सुखमय मेरो स्वभाव । अविनाशी आनंदमय, सो हूँ त्रिभुवनराव ।।९।। चेतन कर्म उपाधि तज, राग-द्वेष को संग। जो प्रगटे परमातमा, शिवसुख होय अभंग ।।१०।। सकल देव में देव यह, सकल सिद्ध में सिद्ध । सकल साधु में साधु यह, पेख निजातम-रिद्ध ।।११।। 'भैया' की यह वीनती, चेतन चितह विचार । ज्ञान-दर्श-चारित्र में, आपो लेहु निहार ।।१२ ।। ९०६. चेतन ! तूं तिहु काल अकेला चेतन ! तूं तिहु काल अकेला।। नदी-नाव संजोग मिलै ज्यों, त्यों कुटुंब का मेला ।।धृ. ।। यह संसार असार रूप सब. ज्यों पटपेखन खेला। सुख-संपति शरीर जल-बुबुद, विनशत नाही बेला।।चे. १॥ मोह-मगन आतम-गुन भूलत, परी तोहि गल-जेला। मैं मैं करत चहूँ गति डोलत, बोलत जैसे छेला।।चे. २ ।। कहत 'बनारसि' मिथ्यामत तज, होय सुगुरुका चेला। तास वचन परतीत आन जिय, होइ सहज सुर-झेला ।।चे. ३ ।। ९०७. मुख ओंकार धुनि मुख ओंकार धुनि सुनि, अर्थ गणधर विचारै । रचि-रचि आगम उपदेसै, भविक जीव संशय निवारै।। सो सत्यारथ शारदा, तासु भक्ति उर आन । छंद भुजंगप्रयागर्मी, अष्टक कहौं बखान ।। manLDKailasbipasa Antanjidain Bhajan Book pants (१११)

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