Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 104
________________ आध्यात्मिक भजन संग्रह २०६ अपनाया । समझाया ।। ५ ।। यह संसार दृष्टि की माया अपना कर केवल दृष्टि सम्यक् कर ले कहान गुरु ७४. कुन्दकुन्द आचार्य कह गये जो निज आतम ध्यायेगा कुन्दकुन्द आचार्य कह गये, जो निज आतम ध्यायेगा । पर से ममता छोड़ेगा तो निश्चय भव से तिर जायेगा ।। १ ।। क्रिया काण्ड में धर्म नहीं है, पर से धर्म नहीं होगा । निज स्वभाव में रमें बिना नहीं कुछ भी धर्म नहीं होगा ।। शुद्ध अखण्ड चिदानन्द ज्ञायक, धर्म वस्तु में पावेगा ।। २ ।। निज स्वभाव के साधन से ही, सिद्ध प्रभु बन जावेगा । राग भाव शुभ अशुभ सभी से जग में गोते खावेगा ।। मुक्ति चाहने वाला तो निज में निज गुण प्रकटावेगा ।। ३ ।। जीव मात्र ऐसा चाहते हैं दुःख मिट जावे सुख आवे । करते रहते हैं उपाय जो अपने अपने मन भावे ।। राग-द्वेष पर भाव तजेगा वो सच्चा सुख पावेगा ||४ || पर-पदार्थ नहीं खोटा चोखा, नहीं सुख दुःख देनेवाला । इष्ट अनिष्ट मान्यता से अज्ञानी भटके मतवाला ।। भेदज्ञान निज पर विवेक से शुद्ध चिदानन्द पावेगा ।। ५ ।। ७५. सीमंधर मुख से फुलवा विरे सीमंधर मुख से फुलवा खिरे, की कुन्दकुन्द गूंथे माल रे, जिनजी की वाणी भली रे ।। १ ।। वाणी प्रभु मने लागे भली, जिसमें सार समय शिर ताजरे, जिनजी की वाणी भली रे ।। २ ।। गूँथा पाहुड़ अरु गूँथा पंचास्ति, गूँथा जो प्रवचनसार रे, जिनजी की वाणी भली रे ।। ३ ।। marak 3D Kailash Data Antanji Jain Bhajan Book pm5 (१०४) विभिन्न कवियों के भजन गूँथा नियमसार, गूँथा रयणसार, गूँथा समय का सार रे, जिनजी की वाणी भली रे ॥४ ॥ स्याद्वाद रूपी सुगंधी भरा जो, जिनजी का ओंकार नाद रे, जिनजी की वाणी भली रे ।। ५ ।। बन्दू जिनेश्वर बन्दू मैं कुन्द कुन्द, बन्दू यह ओंकार नाद रे, जिनजी की वाणी भली रे ।। ६ ।। हृदय रहो मेरे भावो रहो, मेरे ध्यान रहो जिनवाण रे, जिनजी की वाणी भली रे ।।७ ॥ जिनेश्वरदेव की वाणी की गूँज, २०७ मेरे गूँजती रहो दिन रात रे, जिनजी की वाणी भली रे ॥८ ॥ ७६. परम पूज्य भगवान आतमा है अनन्त गुणसे परिपूर्ण परम पूज्य भगवान आतमा है अनन्त गुण से परिपूर्ण । अन्तर मुखाकार होते ही हो जाते सब कर्म विचूर्ण ||१ || सहजानन्दी चिन्मय चेतन है स्वभाव से नहीं विपन्न । शुद्ध सहज चैतन्य विलासी निज वैभव से अति सम्पन्न ।। भेदज्ञान निधी को पाते ही निमिष मात्र में भव्यासन । राग-द्वेष आलाप जाल में जन्म जरा मय मरणासन्न ।। पर्यायों पर दृष्टि तभी तक रहता है वह सदा अपूर्ण ।।२ ।। सम्यग्दर्शन हो जाते ही सम्यग्ज्ञान हृदय होता । सम्यक् चारित्र की तरनी पा कभी नहीं खाता गोता ।। जागृत रहता है स्वभाव में किन्तु विभावों में सोता । मोह राग रुष की कालुषता शुक्ल ध्यान द्वारा धोता ।। प्रगट अनन्त चतुष्टय होता दर्शज्ञान सुख बल आपूर्ण ।। ३ ।। जब तक पर भावों की छलना तब तक तो दुःख ही दुख है। है । ग्यारह अंग पूर्व नो पाठी तक को नहीं लेश सुख

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