Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 105
________________ २०८ आध्यात्मिक भजन संग्रह आत्मभान बिन जग में भ्रमता हुवा नहीं अंतर्मुख है। व्रत तप संयम सभी व्यर्थ हैं, रहता सदा बहिर्मुख है ।। द्रव्य दृष्टि होते ही होता दुर्निवार भव पर्वत चूर्ण ।।४ ।। ज्ञानांकुर उगते ही निजकी महिमा आती अन्तर में। धूल धूसरित हो जाती है भव की माया पल भर में ।। मुक्ति लक्ष्मी का आमंत्रण अलख जगाता निज घर में । शुद्ध अतीन्द्रिय निजानन्द लहराता है निज सागर में ।। शाश्वत चिदानन्द घन चेतन अनुभव रस पीता है पूर्ण ।।५।। ७७. अरे चेतन समझत नाही, कोलग कहूँ समझाय अरे चेतन समझत नाहीं, कोलग कहूँ समझाय ।।टेक ।। परकी को अपनी कर मानी; अपनी खबर न पाय। या कारण नित जग में भटके जन्म मरण दुःख पाय ।।१।। अरे. चेतन... जब चेतन निज रूप सम्हाले फिर नहीं पर संग जाय। आप आपमें रमत जोहरी परमानन्द लहाय ।।२।। अरे. चेतन... ७८. दरबार तुम्हारा मनहर है, प्रभु दर्शन कर हरषाये हैं दरबार तुम्हारा मनहर है, प्रभु दर्शन कर हरषाये हैं। दरबार तुम्हारे आये हैं । ।टेक ।। भक्ति करेंगे चित्त से तुम्हारी, तृप्ति भी होगी चाह हमारी। भाव रहे नित उत्तम ऐसे घट के पट में लाये हैं ।।१।। जिसने चिंतन किया तुम्हारा, मिला उसे संतोष सहारा । शरणे जो भी आये हैं, निज आतम को लख पाये हैं ।।२।। विनय यह ही प्रभु हमारी, आतम की महके फुलवारी। अनुगामी हो तुम पद पावन, बुद्धि चरण शिर नाये हैं ।।३।। विभिन्न कवियों के भजन ७९. हे वीर प्रभूजी हम पर हे वीर प्रभूजी हम पर, अनुपम उपकार तुम्हारा । तुमने दिखलाया हमको, शुद्धातम तत्त्व हमारा ।। हम भूले निज वैभव को, जड़-वैभव अपना माना। अब मोह हुआ क्षय मेरा, सुनकर उपदेश तुम्हारा ।। तू जाग रे चेतन प्राणी, कर आतम की अगवानी। जो आतम को लखते हैं उनकी है अमर कहानी ।।टेक ।। है ज्ञान मात्र निज ज्ञायक, जिसमें है ज्ञेय झलकते । यह झलकन भी ज्ञायक है, इसमें नहीं ज्ञेय महकते ।। मैं दर्शन ज्ञान स्वरूपी, मेरी चैतन्य निशानी ।।१।। अब समकित सावन आया, चिन्मय आनन्द बरसता । भीगा है कण कण मेरा, हो गई अखण्ड सरसता ।। समकित की मधु चितवन में, झलकी है मुक्ति निशानी ।।२।। ये शाश्वत भव्य जिनालय, है शान्ति बरसती इनमें । मानो आया सिद्धालय, मेरी बस्ती हो उसमें ।। मैं हूँ शिवपुर का वासी, भव भव की खतम कहानी ।।३।। ८०. जीव तूं समझ ले आतम पहला जीव तूं समझ ले आतम पहला, कोई मरण समय, नहीं तेरा ।।टेक।। कहाँ से आया कहाँ है जाना, कौन स्वरूप है तेरा? क्या करना था, क्या कर डाला, क्या ये कुटुम्ब कबीला।।१।। आये अकेला जाये अकेला, कोई न संगी तेरा। नंगा आया नंगा जाना, फिर क्या है ये झमेला ।।२।। रेल में आता जाता मानव विघट जात ज्यूं मेला। स्वार्थी भये सब बिछुड़ जायेंगे, अपनी अपनी बेला ।।३।। sa kabata (१०५)

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