Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 107
________________ २१२ आध्यात्मिक भजन संग्रह विभिन्न कवियों के भजन ८५. प्रभू हम सबका एक प्रभू हम सबका एक, तू ही है तारणहारा रे। तुमको भूला फिरा वो ही नर, मारा मारा रे ।। बड़ा पुण्य अवसर यह आया, आज प्रभूजी का दरशन पाया। फूला मन यह हुआ सफल मेरा जीवन सारा रे ।।१।। भक्ति में जब चित्त लगाया, कुमति ने मनको बहकाया। काम क्रोध मद लोभ इन्होंने घेरा डारा रे ।। २ ।। अब तो मेरी ओर निहारो, भव समुद्र से नाथ उबारो। "पंकज' का लो हाथ पकड़ है दूर किनारा रे ।।३ ।। ८६. आनंद मंगल आज हमारे (भैरवी) आनंद मंगल आज हमारे आनंद मंगल आजजी ।।टेक।। श्रीजिन चरणकमल परसत ही विघन गये सब भाजजी ।।१।। सफल भई जब मेरी कामना सम्यक् हिये विराजजी ।।२।। नैन वचन मन शुद्ध करन को भेटें श्री जिन राजजी ।।३।। ८७. नैना मोरे दर्शन कू उमगे (सोरठ) नैना मोरे दर्शन कू उमगे ।।टेक।। परम शांति रस भीनी मूरत हिय मैं हर्ष जगे ।।१।। नमन करत ही अतिसुख उपजै सब दुःख जात भगे ।।२।। नवल पुन्य तैं जोग मिल्यो है चरणन आन लगे ।।३।। ८८. जिया तेरी कौन कुबाण परी रे जिया तेरी कौन कुबाण परी रे सीख मानत नाही खरी रे ।।टेक ।। मोह महामद पी अनादि को परको कहै अपनी रे । सो तेरी कबहुत नाहि है शठ किन तेरी बुद्धि हरीरे ।। परसुभाव अपनी परणति सा होय न एक घड़ी रे । तू चेतन पुद्गल जड़रूपी किन बिध मेल बनी रे ।। अबहुँ समझ गयो न गयो कछुतो निज काज सरी रे । निज परगुण को परख जौहरी जोवे शिव बनड़ी रे ।। ८९. कबै निरग्रंथ स्वरूप धरूंगा कबै निरग्रंथ स्वरूप धरूँगा, तप करके मुक्ति वरूँगा।।टेक ।। कब गृह वास आस सब छार्दू कब वन में विचरूँगा। बाह्याभ्यंतर त्याग परिग्रह, उभय लोक विचरूँगा ।।१।। होय एकाकी परम उदासी, पंचाचार धरूँगा। कब स्थिर योग धरू पदमासन, इन्द्रिय दमन करूँगा ।।२।। आतम ध्यान साजि दिल अपने, मोह अरि से लडूंगा। त्याग उपाधि लगाकर परिषह सहन करूँगा ।।३ ।। कब गुण स्थान श्रेणी पर चढ़ के करम कलंक हरूँगा। आनन्दकंद चिदानन्द साहब, बिन तुमरे सुमरूँगा ।।४ ।। ऐसी लब्धि जबे मैं पाऊँ, आपमें आप तिरूँगा। अमोलकचन्द सुत हीराचन्द' कहै यह बहुरि जग में ना भ्रमूंगा ।।५।। ९०. धन्य धन्य वीतराग वाणी.... धन्य धन्य वीतराग वाणी, अमर तेरी जग में कहानी चिदानन्द की राजधानी, अमर तेरी जग में कहानी ।।टेक ।। sa kabata (१०७)

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