Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 83
________________ १६४ आध्यात्मिक भजन संग्रह अंतर आतम अनुभव करले, भेद विज्ञान सुधा घट भरले। अक्षय पद 'सौभाग्य' मिलेगा, पुनि पुनि मरना जीना क्या ।।४।। १९. कहा मानले ओ मेरे भैया कहा मानले ओ मेरे भैया, भव भव डुलने में क्या सार है। तू बनजा बने तो परमात्मा, तेरी आत्मा की शक्ति अपार है।। भोग बुरे हैं त्याग सजन ये, विपद करें और नरक धरें। ध्यान ही है एक नाव सजन जो, इधर तिरें और उधर वरें। झूठी प्रीति में तेरी ही हार है, वाणी गणधर की ये हितकार है।।१।। लोभ पाप का बाप सजन क्यों राग करे दुःखभार भरे । ज्ञान कसौटी परख सजन मत छलियों का विश्वास करे ।। ठग आठों की यहाँ भरमार है, इन्हें जीते तो बेड़ा पार है।।२।। नरतन का 'सौभाग्य' सजन ये हाथ लगे ना हाथ लगे। कर आतमरस पान सजन जो जनम भगे और मरण भगे।। मोक्ष महल का ये ही द्वार है, वीतरागी हो बनना सार है।।३।। २०. आज सी सुहानी सु घड़ी इतनी आज सी सुहानी सु घड़ी इतनी, कल ना मिलेगी ढूँढ़ो चाहे जितनी ।।टेक।। आया कहाँ से है जाना कहाँ, सोचो तुम्हारा ठिकाना कहाँ। लाये थे क्या है कमाया यहाँ, ले जाना तुमको है क्या-२ वहाँ ।।१।। धारे अनेकों है तूने जनम, गिनावें कहाँ लो है आती शरम। नरदेह पाकर अहो पुण्य धन, भोगों में जीवन क्यों करते खतम ।।२।। प्रभू के चरण में लगा लो लगन, वही एक सच्चे हैं तारणतरण। छूटेगा भव दुःख जामन मरण, “सौभाग्य” पावोगे मुक्ति रमण ।।३।। श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन २१.धोली हो गई रे काली कामली माथा की थारी धोली हो गई रे काली कामली माथा की थारी, धोली हो गई रे काली कामली, सुरज्ञानी चेतो, धोली हो गई रे काली कामली ।।टेर ।। वदन गठीलो कंचन काया, लाल बूंद रंग थारो। हुयो अपूरव फेर फार सब, ढांचो बदल्यो सारो ।।१।। नाक कान आँख्या की किरिया सुस्त पड़ गई सारी। काजू और अखरोट चबे नहिं दाँता बिना सुपारी जी ।।२।। हालण लागी नाड़ कमर भी झुक कर बणी कवानी । मुंडो देख आरसी सोचो ढल गई कयां जवानी जी ।।३ ।। न्याय नीति ने तजकर छोड़ी भोग संपदा भाई। बात-बात में झूठ कपट छल, कीनी मायाचारी ।।४ ।। बैठ हताई तास चोपड़ा खेल्यो बुला खिलाय । लड़या पराया भोला भाई फूल्या नहीं समाय ।।५ ।। प्रभू भक्ति में रूचि न लीनी नहीं करूणा चितधारी। वीतराग दर्शन नहीं रूचियो उमर खोदई सारी जी ।।६।। पुन्य योग 'सौभाग्य' मिल्यो है नरकुल उत्तम प्यारो। निजानंद समता रस पील्यो होसी भव निस्तारो ।।७।। २२. पर्वराज पYषण आया दस धर्मों की ले माला पर्वराज पर्दूषण आया दस धर्मों की ले माला मिथ्यातम में दबी आत्मनिधि अब तो चेत परख लाला ।।टेर ।। तू अखंड अविनाशी चेतन ज्ञाता दृष्टा सिद्ध समान । रागद्वेष परपरणति कारण स्व सरूप को कर्यो न भान ।। मोहजाल की भूल भुलैया समझ नरक सी है ज्वाला ।।१।। sa kabata (८३)

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