Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 84
________________ १६६ आध्यात्मिक भजन संग्रह परम अहिंसक क्षमा भाव भर, तज दे मिथ्या मान गुमान । कपट कटारी दूर फैंक दे जो चाहे अपनो कल्याण ।। सत्य शौच संयम तप अनुपम है अमृत भर पी प्याला ।।२।। परिग्रह त्याग ब्रह्म में रमजा वीतराग दर्शन गायो । चिंतामणी सू काग उड़ा मत नरकुल उत्तम तू पायो ।। शिवरमणी 'सौभाग्य' दिखा रही तुझ अनश्वर सुखशाला ।।३।। २३. नित उठ ध्याऊं, गुण गाऊं, परम दिगम्बर साधु नित उठ ध्याऊं, गुण गाऊं, परम दिगम्बर साधु । महाव्रतधारी-२, महाव्रतधारी ।।टेक ।। रागद्वेष नहीं लेश जिन्हों के मन में है, मन में हैं। कनककामिनी मोह काम नहीं, तन में है, तन में हैं। परिग्रह रहित निरारंभी, ज्ञानी व ध्यानी तपसी। नमो हितकारी भारी, नमो हितकारी ।।१।। शीतकाल सरिता के तट पर, जो रहते, जो रहते। ग्रीष्मऋतु गिरिराज शिखर चढ़ अघ दहते, अघ दहते। तरूतल रहकर वर्षा में, विचलित ना होते लखभय । बन अंधियारी, यारी बन अंधियारी ।।२।। कंचन काँच मसान महल सम, जिनके है जिनके हैं। अरि अपमान मान मित्र सम, तिनके है तिनके हैं। समदर्शी समता धारी, नग्न दिगम्बर मुनि हैं। भवजल तारी, तारी भवजल तारी ।।३।। ऐसे परम तपो निधि जहाँ-२, जाते हैं जाते हैं। परम शांति सुख लाभ जीव सब, पाते हैं पाते हैं। भव-भव में 'सौभाग्य' मिले, गुरू पद पूजूं ध्याऊं। वरू शिवनारी नारी शिवनारी ।।४।। श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन २४. परम दिगम्बर यती, महागुण व्रती, करो निस्तारा परम दिगम्बर यती, महागुण व्रती, करो निस्तारा । नहीं तुम बिन कौन हमारा ।।टेक ।।। तुम बीस आठ गुणधारी हो, जग जीवमात्र हितकारी हो। बाईस परीषह जीत धरम रखवारा ।।१।।नहीं तुम. तुम आतमध्यानी ज्ञानी हो, शुचि स्वपर भेद विज्ञानी हो। है रत्नत्रय गुणमंडित हृदय तुम्हारा ।।२।।नहीं तुम. तुम क्षमाशील समता सागर, हो विश्व पूज्य वर रत्नाकर। है हितमित सत उपदेश तुम्हारा प्यारा ।।३।।नहीं तुम. तुम प्रेममूर्ति हो समदर्शी, हो भव्य जीव मन आकर्षी । है निर्विकार निर्दोष स्वरूप तुम्हारा ।।४ ।।नहीं तुम. है यही अवस्था एक सार, जो पहुँचाती है मोक्ष द्वार । 'सौभाग्य' आपसा बाना होय हमारा ।।५ ।।नहीं तुम. २५. पल पल बीते उमरिया रूप जवानी जाती ..... पल पल बीते उमरिया रूप जवानी जाती, प्रभु गुण गाले, गाले प्रभु गुण गाले ।।टेर ।। पूरब पुण्य उदय से नर तन तुझे मिला, तुझे मिला। उत्तम कुल सागर मैं आ तू कमल खिला, कमल खिला ।। अब क्यों गर्व गुमानी हो धर्म भुलाया अपना, पड़ा पाप पाले पाले।।१।। नश्वर धन यौवन पर इतना मत फूले, मत फूले । पर सम्पत्ति को देख ईर्षा मत झूले, मत झूले ।। निज कर्त्तव्य विचार कर, पर उपकारी होकर पुण्य कमाले, कमाले।।२।। देवादिक भी मनुष जनम को तरस रहे, तरस रहे । मूढ़! विषय भोगों में, सौ सौ बरस रहे, बरस रहे ।। चिंतामणि को पाकर रे कीमत नहीं जानी तूने, गिरा कीच नाले नाले।।३।। sa kabata (८४)

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