Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 88
________________ १७४ आध्यात्मिक भजन संग्रह २०५ | विभिन्न कवियों के भजन २०६ २०७ २०८ २०९ २१२ • प्रभो वीतरागी हितंकर तू ही है। धर्म बिन बावरे तू ने मानव रतन गँवाया कुन्दकुन्द आचार्य कह गये जो निज आतम ध्यायेगा • सीमंधर मुख से फुलवा खिरे । परम पूज्य भगवान आतमा है अनन्त गुण से परिपूर्ण अरे चेतन समझत नाही, कोलग कहूँ समझाय • दरबार तुम्हारा मनहर है, प्रभु दर्शन कर हरषाये हैं . हे वीर प्रभूजी हम पर • जीव तूं समझ ले आतम पहला क्यों चढ़ रह्यो मान सिखापै . ऐसे मुनिवर देखें वन में दरबार तुम्हारे आये हैं • मनहर तेरी मूरतियाँ, मस्त हुआ मन मेरा प्रभू हम सबका एक • आनंद मंगल आज हमारे नैना मोरे दर्शन कू उमगे जिया तेरी कौन कुबाण परी रे . कबै निरग्रंथ स्वरूप धरूँगा . धन्य धन्य वीतराग वाणी ........ चेतो चेतन निज में आवो ......... शान्ति सुधा बरसाए जिनवाणी • जिनवाणी अमृत रसाल.... शरण कोई नहीं जग में... • चार गति में भ्रमते भ्रमते.....चेतो हे! चेतन राज.... माँ जिनवाणी बसो हृदय में .... जिनवाणी माता-दरशायो तुम भी राह सुन सुन रे चेतन प्राणी • जय जय माँ जिनवाणी • माता जिनवाणी तेरा • परम उपकारी जिनवाणी मैं ही सिद्ध परमातमा • परमात्म-भावना • चेतन! तूं तिहु काल अकेला • मुख ओंकार धुनि २१३ २१४ १. पलकन से मग झारूँ (श्याम कल्याण व इमन कल्याण) पलकन से मग झारूँ ए री हे महा जो मुनि आवे द्वार मेरे ।।टेर ।। कनक रतनमय कर ले झारी चरण कमल को पखालूँ ।।१।। कर पर कर घर अशन कराऊँ, भव भव के अघ टारूँ । जनम कृतारथ जब ही मेरो, 'जग' जिन रूप निहारूँ ।।२।। २. थांकी शान्ति छवि मन बसगई जी थांकी शान्ति छवि मन बसगई जी नहीं रुचे और छवि नैनन में ।।टेर ।। निर्विकार निग्रंथ दिगम्बर देखत कुमति विनशगईजी ।।१।। चिर मिथ्यातम दूर करन को चन्द्रकला सी दरश रहीजी ।।२।। 'मानिक' मन मयूर हरषन को मेघ घटासी दरश रहीजी ।।३।। ३. किस विधि किये करम चकचूर (जंगला) किस विधि किये करम चकचूर, थांकी उत्तम क्षमा पर अचंभो म्हाने आवैजी ।।टेर ।। एक तो प्रभु तुम परम दिगम्बर, पास न तिलतुष मात्र हजूर । दूजे जीवदया के सागर, तीजै संतोषी भरपूर ।।१।। चौथे प्रभु तुम हित उपदेशी, तारण तरण जगत मशहूर । कोमल वचन सरल सम वक्ता, निर्लोभी संजम तप शूर ।।२।। कैसे ज्ञानावरण निवारयो, कैसे गेरयो अदर्शन चूर । कैसे मोहमल्ल तुम जीते, कैसे किये च्यारौं घातिया दूर ।।३।। त्याग उपाधि हो तुम साहिब, आकिंचन व्रतधारी मूल । दोष अठारह दूषण तजके, कैसे जीते काम क्रूर ।।४ ।। २१५ २१८ २१९ २२१ (८८)

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