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विभिन्न कवियों के भजन
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आध्यात्मिक भजन संग्रह कैसे केवल ज्ञान उपायो, अन्तराय कैसे कियो निर्मूल । सुरनर मुनि सेवै चरण तिहारे, तो भी नहीं प्रभु तुमको गरूर ।।५।। करत दास अरदास 'नैनसुख' ये ही वर दीजे मोहे दान जरूर । जन्म-जन्म पद-पंकज सेऊँ और नहीं कछु चाहूँ हजूर ।।६।। ४. नहिं गोरो नहिं कारो चेतन
(जंगला) नहिं गोरो नहिं कारो चेतन, अपनो रूप निहारो रे ।।टेर ।। दर्शन ज्ञान मई चिन्मूरत, सकल करम ते न्यारो रे ।।१।। जाके बिन पहिचान जगतमें सह्यो महा दुख भारोरे । जाके लखे उदय हो तत्क्षण, केवल ज्ञान उजारो रे ।।२।। कर्म जनित पर्याय पायके कीनों तहाँ पसारो रे। आपा परको रूप न जान्यो, तातै भव उरझारो रे ।।३ ।। अब निजमें निजकू अवलोकू जो हो भव सुलझारो रे । 'जगतराम' सब विधि सुख सागर पद पाऊँ अविकारो रे ।।४।। ५. इस विधि कीने करम चकचूर
(जंगला) इस विधि कीने करम चकचूर-सो विधि बतलाऊँ तेरा। भरम मिटाऊँ बीरा, इस विधि कीने करम चकचूर ।।टेर ।। सुनो संत अहँत पंथ जन, स्वपर दया जिस घट भरपूर । त्याग प्रपंच निरीह करै तप, ते नर जीते कर्म करूर ।।१।। तोड़े क्रोध निठुरता अघ नग, कपट क्रूर सिर डारी घूर । असत अंग कर भंग बतावे, ते नर जीते कर्म करूर ।।२।। लोभ कंदरा के मुख में भर, काठ असंजम लाय जरूर। विषय कुशील कुलाचल पँके, ते नर जीते करम करूर ।।३।।
परम क्षमा मृदुभाव प्रकाशे, सरल वृत्ति निरवांछक पूर। धर संजम तप त्याग जगत सब, ध्यावें सत चित केवलनूर ।।४।। यह शिवपंथ सनातन संतो, सादि अनादि अटल मशहूर । या मारग 'नैनानन्द' हु पायो, इस विधि जीते कर्म करूर ।।५।। ६. जगत गुरु कब निज आतम ध्याऊँ
(दुर्गा) जगत गुरु कब निज आतम ध्याऊँ ।।टेर ।। नग्न दिगम्बर मुद्रा धरके कब निज आतम ध्याऊँ । ऐसी लब्धि होय कब मोकूँ, जो वाँछित पाऊँ ।।१।। कब गृह त्याग होऊँ बनवासी, परम पुरुष लौ लाऊँ । रहूँ अडोल जोड पद्मासन, करम कलंक खिपाऊँ ।।२।। केवल ज्ञान प्रकट कर अपनो, लोकालोक लखाऊँ । जन्म जरा दुख देत जलांजलि हो कब सिद्ध कहाऊँ ।।३।। सुख अनन्त विलसूं तिंह थानक, काल अनन्त गमाऊँ। 'मानसिंह' महिमा निज प्रकटे, बहुरि न भव में आऊँ ।।४ ।। ७. मुक्ति की आशा लगी
(सोरठ) मुक्ति की आशा लगी, निज ब्रह्म को जाना नहीं ।।टेर ।। घर छोड़ के योगी हुआ, अनुभाव को ठाना नहीं। जिन धर्म को अपना सगा, अज्ञान तैं माना नहीं ।।१।। बाहिर मैं तू त्यागी हुआ, बातिन तेरा छाना नहीं । ऐ यार अपनी भूल से, विष बेल फल खाना नहीं ।।२।। संसार को त्यागे बिना, निर्वाण पद पाना नहीं। संतोष बिन अब 'नैनसुख' तुमको मजा आना नहीं ।।३।।
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