Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 90
________________ १७८ ८. थारा तो भला की जिया याही ज्ञान ( सोरठ ) थारा तो भला की जिया याही जान ।।टेर ।। आध्यात्मिक भजन संग्रह कर श्रद्धान जिनेसुर वाणी, समकित हिरदय आन ।। १ ।। तज कषाय त्याग परिग्रह, कर्म रिपुन को भान । जगतराम शुभ गति पावन को, जग में येही पिछान ।। २ ।। ९. भजन बिन योंही जनम गमायो ( सोरठ ) भजन बिन योंही जनम गमायो । टेर ।। पानी पहली पाल न बाँधी, फिर पीछे पछतायो ।। १ ।। रामा-मोह भये दिन खोवत, आशा पाश बँधायो । जप तप संजमदान नहीं दीनों मानुष जनम हरायो ।। २ ।। देह शीस जब काँपन लागी, दसन चलाचल थायो । लागी आगि बुझावन कारन चाहत कूप खुदायो || ३ || काल अनादि गुमायो भ्रमतां, कबहुँ न थिर चित लायो । हरी विषय सुख भरम भुलानो, मृग तृष्णा वशि धायो ||४ || १०. बिदा होने के बाजे बजने लगे ( सोरठ ) बिदा होने के बाजे बजने लगे । टेर ।। तार खबर हिचकी जब आई, कल पुर्जे सब हिलने लगे ॥ १ ॥ चार जने मिल मतो उपायो, काठ की गुडया सजने लगे ॥ २ ॥ घर के बाहर खड़े जो बराती चलोजी चलो सब कहने लगे ॥ ३ ॥ जा जंगल में होली लगाई अपने अपने ठिकाने लगे ||४|| परमेश्वर का भजन करो नर, इस दुनिया में कोई न सगे ।। ५ ।। marak 3D Kailash Data Antanji Jain Bhajan Book pra (९०) विभिन्न कवियों के भजन ११. सुनरे गँवार, नितके लबार, तेरे घट ( सोरठ ) सुनरे गँवार, नितके लबार, तेरे घट मँझार परगट दिदार, मत फिरै ख्बार उरझी को सुरझाले ।। र ।। जिमन विकार, अनुभव कूं धार । कर बार बार निज विचार, तू है समयसार अपने ही गुण गाले ।। १ ।। तूही भव स्वरूप, तुही शिव सरूप, होके ब्रह्म रूप पड़ा नर्ककूप विषयन के तूप सेती मन को हटाले ।। २ ।। १७९ कहै दास नैन आनंद दैन, सुन जैन वैन जासु होत चैन । तजि मोह सेन, नर भो फल पाले ।। ३ ।। १२. मानोजी चेतनजी मोरी बात (राग उझाज जोगीरासा ) मानोजी चेतनजी मोरी बात, छोड़ो छोड़ो कुमति केरो साथ ||टेर ।। कुमती तोय दिढावत कूडी, यातैं जग भरमात ।। १ ।। या संग दुःख सहे भव वन में, ता संग फिर क्यूं जात ।।२ ।। चेतन ज्ञान समझ अपनावो, यातैं शिवपुर जात || ३ || १३. जब निज ज्ञान कला घट आवैं (राग उझाज जोगीरासा ) जब निज ज्ञान कला घट आवै तब भोग जगत ना सुहावै । मैं तन - मय अरु तन है मेरा, फिर यह बात न भावै ।। १ ।। खाज खुजात मधुरसी लागत फिर तन अति दुख पावै । त्यों यह विषय जान विषवत तज काल अनंत भ्रमावै ।। २ ।। सुपने वत सब जग की माया, तामैं नाहिं लुभावै । चैन छांड मन की कुटिलाई ते शीघ्र ही शिव जावै ।। ३ ।।

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