Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 68
________________ १३४ आध्यात्मिक भजन संग्रह जिन जीवनके, संसृत पारावार पार निकटावै । 'भागचन्द' ते सार अमोलक, परम रतन वर पावै ।।७।। ५. ऐसे विमल भाव जब पावै (राग काफी) ऐसे विमल भाव जब पावै, तब हम नरभव सुफल कहावै ।।टेक ।। दरशबोधमय निज आतम लखि, परद्रव्यनिको नहिं अपनावै। मोह-राग-रुष अहित जान तजि, झटित दूर तिनको छुटकावै।।१।। कर्म शुभाशुभबंध उदयमें, हर्ष विषाद चित्त नहिं ल्यावै । निज-हित-हेत विराग ज्ञान लखि, तिनसों अधिक प्रीति उपजावै।।२।। विषय चाह तजि आत्मवीर्य सजि, दुखदायक विधिबंध खिरावै। 'भागचन्द' शिवसुख सब सुखमय, आकुलता बिन लखि चित चावै।।३।। ६. आकुलरहित होय इमि निशदिन आकुलरहित होय इमि निशदिन, कीजे तत्त्वविचारा हो। को मैं कहा रूप है मेरा, पर है कौन प्रकारा हो ।।टेक ।। को भव-कारण बंध कहा को, आस्रव रोकनहारा हो। खिपत कर्मबंधन काहेसों, थानक कौन हमारा हो ।।१।। इमि अभ्यास किये पावत हैं, परमानंद अपारा हो। 'भागचन्द' यह सार जान करि, कीजै बारंबारा हो ।।२।। ७. सफल है धन्य धन्य वा घरी (लावनी) सफल है धन्य धन्य वा घरी, जब ऐसी अति निर्मल होसी, परम दशा हमरी ।।टेक ।। धारि दिगंबरदीक्षा सुंदर, त्याग परिग्रह अरी। वनवासी कर-पात्र परीषह, सहि हों धीर धरी ।।१।। पण्डित भागचन्दजी कृत भजन दुर्धर तप निर्भर नित तप हों, मोह कुवृक्ष करी। पंचाचारक्रिया आचरहों, सकल सार सुथरी ।।२।। विभ्रमतापहरन झरसी निज, अनुभव मेघझरी। परम शान्त भावनकी तातें, होसी वृद्धि खरी ।।३।। त्रेसठिप्रकृति भंग जब होसी, जुत त्रिभंग सगरी । तब केवलदर्शनविबोध सुख, वीर्यकला पसरी ।।४ ।। लखि हो सकल द्रव्यगुनपर्जय, परनति अति गहरी। 'भागचन्द' जब सहजहि मिल है, अचल मुकति नगरी ।।५।। ८. प्रानी समकित ही शिवपंथा (राग दीपचन्दी सोरठ) प्रानी समकित ही शिवपंथा। या विन निर्फल सब ग्रंथा ।।टेक।। जा बिन बाह्यक्रिया तप कोटिक, सकल वृथा है रंथा ।।१।। हयजुतरथ भी सारथ विन जिमि, चलत नहीं ऋजु पंथा ।।२।। 'भागचन्द' सरधानी नर भये, शिवलछमीके कंथा ।।३।। ९. जीवनके परिनामनिकी यह (राग ठुमरी) जीवनके परिनामनिकी यह, अति विचित्रता देखहु ज्ञानी ।।टेक ।। नित्य निगोदमाहितें कढ़िकर, नर परजाय पाय सुखदानी। समकित लहि अंतर्मुहूर्तमें, केवल पाय वरै शिवरानी ।।१।। मुनि एकादश गुणथानक चढ़ि, गिरत तहातै चितभ्रम ठानी। भ्रमत अर्धपुद्गलप्रावर्तन, किंचित् ऊन काल परमानी ।।२।। निज परिनामनिकी सँभालमें, तातै गाफिल मत है प्रानी। बंध मोक्ष परिनामनिहीसों, कहत सदा श्रीजिनवरवानी ।।३।। सकल उपाधिनिमित भावनिसों, भिन्न सु निज परनतिको छानी। ताहिं जानि रुचि ठानि हो हु थिर, भागचन्द' यह सीख सयानी।।४।। (६८)

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