Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 67
________________ पण्डित भागचन्दजी कृत भजन पण्डित भागचन्दजी कृत भजन 9. सन्त निरन्तर चिन्तत ऐसैं (राग ठमरी) सन्त निरन्तर चिन्तत ऐसैं, आतमरूप अबाधित ज्ञानी ।।टेक।। रोगादिक तो देहाश्रित हैं, इनतें होत न मेरी हानी। दहन दहत ज्यों दहन न तदगत, गगन दहन ताकी विधि ठानी।।१।। वरणादिक विकार पुद्गलके, इनमें नहिं चैतन्य निशानी। यद्यपि एकक्षेत्र-अवगाही, तद्यपि लक्षण भिन्न पिछानी ।।२।। मैं सर्वांगपूर्ण ज्ञायक रस, लवण खिल्लवत लीला ठानी। मिलौ निराकुल स्वाद न यावत, तावत परपरनति हित मानी ।।३।। 'भागचन्द्र' निरद्वन्द निरामय, मूरति निश्चय सिद्धसमानी। नित अकलंक अवंक शंक बिन, निर्मल पंक बिना जिमि पानी ।।४।। २. सुमर सदा मन आतमराम (राग बिलावल) सुमर सदा मन आतमराम, सुमर सदा मन आतमराम ।।टेक।। स्वजन कुटुंबी जन तू पोषै, तिनको होय सदैव गुलाम । सो तो हैं स्वारथ के साथी, अंतकाल नहिं आवत काम ।।१।। जिमि मरीचिका में मृग भटकै, परत सो जब ग्रीषम अति घाम । तैसे तू भवमाहीं भटकै, धरत न इक छिनहू विसराम ।।२।। करत न ग्लानि अबै भोगन में, धरत न वीतराग परिनाम । फिर किमि नरकमाहिं दुख सहसी, जहाँ सुख लेशन आठौं जाम ।।३।। ता” आकुलता अब तजिकै, थिर द्वै बैठो अपने धाम । 'भागचन्द' वसि ज्ञान नगरमें, तजि रागादिक ठग सब ग्राम ।।४।। ३. आतम अनुभव आवै जब निज (राग गौरी) आतम अनुभव आवै जब निज, आतम अनुभव आवै। और कछू न सुहावै, जब निज आतम आतम अनुभव आवै ।।टेक ।। रस नीरस हो जात ततच्छिन, अक्ष विषय नहीं भावै ।।१।। गोष्ठी कथा कुतुहल विघटै, पुद्गलप्रीति नसावै ।।२।। राग-दोष जुग चपल पक्षजुत, मन पक्षी मर जावै ।।३।। ज्ञानानन्द सुधारस, उधमै, घर अंतर न समावे ।।४ ।। 'भागचन्द' ऐसे अनुभव के, हाथ जोरि सिर नावै ।।५।। ४. आतम अनुभव आवै जब निज (राग गौरी) आतम अनुभव आवै जब निज, आतम अनुभव आवै । और कछू न सुहावे जब निज, आतम अनुभव आवै ।।टेक ।। जिनआज्ञाअनुसार प्रथम ही, तत्त्व प्रतीति अनावै । वरनादिक रागादिकतै निज, चिह्न-भिन्न फिर ध्यावै ।।१।। मतिज्ञान फरसादि विषय तजि, आतम सम्मुख धावै । नय प्रमान निक्षेप सकल श्रुत, ज्ञानविकल्प नसावै ।।२।। चिदऽहं शुद्धोऽहं इत्यादिक, आपमाहिं बुध आवै । तन पै बज्रपात गिर” हू, नेकु न चित्त डुलावै ।।३।। स्वसंवेद आनंद बट्टै अति, वचन कह्यो नहिं जावै। देखन जानन चरन तीन विच, इक स्वरूप लखावे ।।४।। चितकर्ता चित कर्मभाव चित, परनति क्रिया कहावै। साधक साध्य ध्यान ध्येयादिक, भेद कछू न दिखावै ।।५।। आत्मप्रदेश अदृष्ट तदपि, रसस्वाद प्रगट दरसावै । ज्यों मिश्री दीसत न अंधको, सपरस मिष्ट चखावै ।।६।। ani - (६७)

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