Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 80
________________ आध्यात्मिक भजन संग्रह १५८ ८. तेरे दर्शन से मेरा दिल खिल गया तेरे दर्शन से मेरा दिल खिल गया। मुक्ति के महल का सुराज्य मिल गया । आतम के सुज्ञान का सुभान हो गया, भव का विनाशी तत्त्वज्ञान हो गया । । टेर ।। तेरी सच्ची प्रीत की यही है निशानी । भोगों से छूट बने आतम सुध्यानी । कर्मों की जीत का सुसाज मिल गया । । मुक्ति के ।। १ ।। तेरी परतीत हरे व्याधियाँ पुरानी । जामन मरण हर दे शिवरानी । प्रभो सुख शान्ति सुमन आज खिल गया । । मुक्ति के ॥ २ ॥ ज्ञानानन्द अतुल धन राशी । सिद्ध समान वरूँ अविनाशी । यही " सौभाग्य” शिवराज मिल गया । । मुक्ति के ।। ३ ।। ९. स्वामी तेरा मुखड़ा है मन को लुभाना स्वामी तेरा मुखड़ा है मन को लुभाना, स्वामी तेरा गौरव है मन को डुलाना । देखा ना ऐसा सुहाना - २ | स्वामी । । टेर ।। ये छवि ये तप त्याग जगत का, भाव जगाता आतम बल का । हरता है नरकों का जाना - २ || स्वामी || १ ॥ जो पथ तूने है अपनाया, वो मन मेरे भी अति भाया । पाऊँ मैं तुम पद लुभाना - २ ।। स्वामी ॥ २ ॥ पंचम गति का मैं वर चाहूँ, जीवन का “सौभाग्य” दिपाऊँ । गूँजे हैं अंतर तराना - २ । स्वामी ॥ ३ ॥ marak 3D Kailash Data (८०) श्री सौभाग्यमलजी कृत भजन १०. तेरी शांति छवि पे मैं बलि बलि जाऊँ तेरी शांति छवि पे मैं बलि बलि जाऊँ । खुले नयन मारग आ दिल मैं बिठाऊँ ।। लेखा ना देखा, धर्म पाप जोड़ा, बना भोग लिप्सा कि चाहों में दौड़ा, सहे दुख जो जो कहा लो सुनाऊँ तेरी शांति... । । तेरी ।। १ ।। तेरा ज्ञान गौरव जो गणधर ने गाया, वही गीत पावन मुझे आज भाया, उसी के सुरों में सुनो मैं सुनाऊँ तेरी शांति छवि . । । तेरी ।। २ ।। जगी आत्म ज्योति सम्यक्त्व तत्त्व की, घटी है घटा शाम मिथ्या विकल की, निजानन्द “सौभाग्य" सेहरा सजाऊँ - २ ।। तेरी ।। ३ ।। ११. जहाँ रागद्वेष से रहित निराकुल जहाँ रागद्वेष से रहित निराकुल, आतम सुख का डेरा | वो विश्व धर्म है मेरा, वो जैन धर्म है मेरा । जहाँ पद-पद पर है परम अहिंसा करती क्षमा बसेरा । वो विश्व धर्म है मेरा, वो जैनधर्म है मेरा | टेर ।। जहाँ गूंजा करते, सत संयम के गीत सुहाने पावन । जहाँ ज्ञान सुधा की बहती निशिदिन धारा पाप नशावन । जहाँ काम क्रोध, ममता, माया का कहीं नहीं है घेरा ।। १ ।। जहाँ समता समदृष्टि प्यारी, सद्भाव शांति के भारी । जहाँ सकल परिग्रह भार शून्य है, मन अदोष अविकारी। जहाँ ज्ञानानंत दरश सुख बल का, रहता सदा सवेरा ।। २ ।। १५९

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