Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ आध्यात्मिक भजन संग्रह ८७. अब समझ कही ...... कौन कौन आपद विषयनितें, नरक निगोद सही।।अब.।।१।। एक एक इन्द्री दुखदानी, पांचौं दुखत नहीं।।हम.।।२।। 'द्यानत' संजम कारजकारी, धरौ तरौ सब ही ।।हम.।।३।। ८८. आरसी देखत मन आर-सी लागी ...... सेत बाल यह दूत कालको, जोवन मृग जरा बाघिनिखागी।।आरसी. ।।१।। चक्री भरत भावना भाई, चौदह रतन नवों निधि त्यागी।।आरसी.।।२।। 'द्यानत' दीक्षा लेत महरत, केवलज्ञान कला घट जागी।।आरसी.।।३।। ८९. काहेको सोचत अति भारी, रे मन! ...... पूरब करमनकी थित बाँधी, सो तो टरत न टारी।।काहे. ।। सब दरवनिकी तीन कालकी, विधि न्यारीकी न्यारी। केवलज्ञानविर्षे प्रतिभासी, सो सो है है सारी ।।काहे. ।।१।। सोच किये बहु बंध बढ़त है, उपजत है दुख ख्वारी। चिंता चिता समान बखानी, बुद्धि करत है कारी । काहे. ।।२।। रोग सोग उपजत चिंतातें, कहौ कौन गुनवारी। 'द्यानत' अनुभव करि शिव पहुँचे, जिन चिंता सब जारी । काहे. ।।३।। ९०. कौन काम अब मैंने कीनों, लीनों सुर अवतार हो .. गृह तजि गहे महाव्रत शिवहित, विफल फल्यो आचार हो।।कौन. ।।१।। संयम शील ध्यान तप क्षय भयो, अव्रत विषय दुखकार हो।।कौन.।।२।। 'द्यानत' कब यह थिति पूरी द्वै, लहों मुक्तपद सार हो।।कौन.।।३।। ९१. गलतानमता कब आवैगा ...... राग-दोष परणति मिट जै है, तब जियरा सुख पावैगा।।गलता. ।। मैं ही ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मैं, तीनों भेद मिटावैगा। करता किरिया करम भेद मिटि, एक दरव लौं लावैगा ।।गलता.॥१॥ पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन निह. अमल मलिन व्योहारी, दोनों पक्ष नसावैगा। भेद गुण गुणीको नहिं है है, गुरु शिख कौन कहावैगा ।।गलता. ।।२।। 'द्यानत' साधक साधि एक करि, दुविधा दूर बहावैगा। वचनभेद कहवत सब मिटकै, ज्यों का त्यों ठहरावैगा ।।गलता. ।।३।। ९२. चाहत है सुख पै न गाहत है धर्म जीव ...... सुखको दिवैया हित भैया नाहिं छतियाँ।।चाहत. ।। दुखते डरै है पै भरै है अघसेती घट, दुखको करैया भय दैया दिन रतियाँ ।।चाहत. ।।१।। बोयो है बबूल मूल खायो चाहै अंब भूल, दाह ज्वर नासनिको सोवै सेज ततियां ।।चाहत. ।।२।। 'द्यानत' है सुख राई दुख मेरुकी कमाई, देखो राई चेतनकी चतुराई बतियां ।।चाहत. ।।३।। ९३. जीव! तैं मूढ़पना कित पायो ....... सब जग स्वारथको चाहत है, स्वारथ तोहि न भायो।।जीव. ।। अशुचि अचेत दुष्ट तनमाही, कहा जान विरमायो। परम अतिन्द्री निजसुख हरिकै, विषय रोग लपटायो।।जीव. ।।१।। चेतन नाम भयो जड़ काहे, अपनो नाम गमायो। तीन लोकको राज छांडिके, भीख मांग न लजायो।।जीव. ।।२।। मूढ़पना मिथ्या जब छूटे, तब तू संत कहायो। 'द्यानत' सुख अनन्त शिव विलसो, यों सद्गुरु बतलायो।।जीव. ।।३।। ९४. झूठा सपना यह संसार ...... दीसत है विनसत नहिं बार ।।झूठा. ।। मेरा घर सव सिरदार, रह न सके पल एक मँझार।।झूठा. ।।१।। मेरे धन सम्पति अति सार, छांडि चलै लागै न अबार।।झूठा.।।२।। praise to a इन्द्री विषै विषैफल धार, मीठे लौँ अन्त खयकार ।।झूठा. ।।३।। (२१) sa kabata

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